नरेंद्र मोदी जी ने अपने चुनाव प्रचार के दिनों में जम्मू कश्मीर के कठुआ जिले में हो रही एक सभा में वायदा किया कि वह पश्चिमी पाकिस्तान से आए शरणार्थियों को भारत की नागरिकता प्रदान करेंगे। उनका कहना था कि यह शरणार्थी भारत पाकिस्तान के बंटवारे के बाद से ही भारत अधिकृत कश्मीर में रहे हैं किंतु अभी तक इन्हें किसी भी सरकार ने भारतीय नागरिक का दर्जा नहीं दिया है लेकिन अब भारतीय जनता पार्टी इन शरणार्थियों के साथ न्याय करेगी। नरेंद्र मोदी के यह शब्द निश्चित ही 80 वर्षीय जिनाओ देवी के लिए उम्मीद की एक नई किरण लेकर आए होंगे जो कम से कम एक बार अपनी जिंदगी में ठहराव को महसूस करना चाहती हैं। अपनी जिंदगी में ठहराव का स्वाद चखने की इच्छुक सिर्फ जिनाओ देवी ही नहीं हैं बल्कि उनके जैसी अनेकों ऐसी महिलाए हैं जो कम से कम एक बार अपनी जिंदगी में एक स्थायित्व चाहती हैं। लेकिन अफसोस यह है कि जिनके हाथों में शासन की बागडोर है वही इन बेसहारा महिलाओं के माथे से शरणार्थी का नाम हटाने के कतई इच्छुक नहीं हैं।
जिनाओ देवी पश्चिमी पाकिस्तान से आए शरणार्थियों के ऐसे समुदाय से हैं जो दशकों से केंद्र तथा राज्य दोनों ही सरकारों द्वारा लागू की गई अमानवीय तथा भेद-भाव वाली नीतियों का शिकार रहा है। 1947 के भारत-पाकिस्तान के बंटवारे के द©रान हुए सर्वनाश से खुद क¨ बचाने के लिए बहुत से परिवारों को अपना घर छोड़कर भागना पड़ा। जिनाओ देवी का परिवार भी उन्हीं में से एक था। पाकिस्तान छोड़ने के बाद उनके परिवार ने इस उम्मीद से जम्मू कश्मीर राज्य में शरण ली कि शायद भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष तथा जनवादी देश में उनका भविष्य सुरक्षित हो सकेगा। लेकिन जम्मू एवं कशमीर में शरण लेने का उनका यह निर्णय बहुत बड़ी गलती साबित हुआ क्यूँ कि राज्य के पूर्व सरकारों ने इन शरणार्थियों को किसी भी तरह का संवैधानिक अधिकार नहीं दिया। पश्चिमी पाकिस्तान से आए शरणार्थियों के परिवार 1947 से ही खानाबदोश की जिंदगी गुजार रहे हैं।
एक चटाई पर बैठी जिनाओ देवी एवं कुछ और महिलाओं के समूह ने पश्चिमी पाकिस्तानी शरणार्थी के रूप में अपनी जीवन की कहानी सुनाई। झुर्रियों से भरे चेहरे पर लगी खोफज़दा दो आंखें बंटवारे के वक्त की कहानी सुनाते हुए आंसूओं से भर उठती हैं। उन्होंने बताया कि दंगे इतने अचानक हुए कि जिसको जो भी हाथ लगा (आटा, बर्तन, कपड़े ) उठाकर अपनी जान बचाने भागा। वह दिन भर चलते रहते। जब थक जाते तो सुस्ताने के लिए बैठ जाते और फिर खड़े ह¨कर चलना शुरु कर देते। भूख लगने पर वह पत्थर इक्टठा कर चूल्हा बनाते। फिर उन चूल्हों पर आटे की लोइयां बनाकर, उन्हें सेंककर बिना नमक या सब्जी के खा लेते और फिर चलना शुरु कर देते। रात को वह पत्थरों पर सो जाते और फिर सुबह उठकर अपना कभी न खत्म ह¨ने वाला सफर शुरु कर देते। जब पास जमा सारा रसद खत्म ह¨ गया तो उन्होंने पानी पीकर गुजारा करना शुरु कर दिया। फिर उन्होंने दूसरों से भीख मांगनी शुरु कर दी। कभी-कभी त¨ भीख मिल जाती लेकिन बहुत बार भूखे पेट स¨ना पड़ता और फिर सुबह उठकर अपना लंबा सफर शुरु कर देते।
आखिरकार वह जम्मू पहुंच गए और गुर्जरों द्वारा बनाए गए मिट्टी और घास के घर, जिन्हें स्थानीय भाषा में कूलियां कहा जाता है, में रहने लगे। वहां से वह कोटे भलवल नामक जगह पर पहुंचे। कोटे भलवल से उन्हें द¨माना विस्थापित कर दिया गया। वहां पर उनके पति ने दूसरे पुरुषों के साथ दूसरों की जमीन पर खेत मजदूर का काम शुरु कर दिया। इसके बदले उन्हें एक किलो आटा या कभी-कभी बेसन और सब्जियां मिल जाती थीं। वो जो कुछ भी कमाते वहीं पकाकर घरवाले खाना खाते। ऐसे भी दिन रहे हैं जब उन्होंने पास की नहर से बस पानी पीकर काम चलाया। वक्त के साथ उन्हें दूसरों के खेतों में काम करने के बदले फसल का एक हिस्सा मिलने लगा। उनका मानना है कि उन्होंने बहुत से कठिन दिन देखे हैं जब उनके पास न खाने को खाना था न सर पर छत और जीवन जानवरों की भांति।
जिनाओ देवी की कहानी कोई अनोखी नहीं है। जम्मू शहर के बाहरी परिधि पर स्थित दोमाना क्षेत्र में रह रहे 200 अन्य पश्चिमी पाकिस्तानी शरणार्थी परिवारों में सभी की कहानी लगभग इतनी ही दर्द भरी है। जिनाओ देवी के पति को गुजरे 40 साल ह¨ चुके हैं। उनके पीछे उनके साथ उनके द¨ बेटे और चार बेटियां रह गई हैं। वे बताती हैं कि उन्होंने बहुत मुश्किलों से अपने बच्चों¨ पाला है। लड़कियों को पढ़ने के लिए नहीं भेजा। वे बचपन से ही परिवार की मदद करने के लिए काम करने लगीं। लड़कोण को पढ़ने के लिए भेजा, लेकिन उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी क्यों कि उनके लिए नौकरियां नहीं थीं। इन लोगों ने घर तो बना लिए हैं किंतु वे अभी भी भूमिहीन हैं क्यों कि जमीनों की गिर्दवारी (पंजीकरण) अभी भी उनके नाम पर नहीं है। उन्हें यह भय हमेशा सताता रहता है कि उन्हें कभी भी जगह छोड़ कर जाने के लिए कह दिया जा सकता है और उनके पास जाने के लिए क¨ई जगह नहीं है। 65 वर्षो से ये शरणार्थी बेघर हैं। जिनाअ¨ देवी सरकार की तरफ आक्रोश व्यक्त करते हुए कहती हैं 66 सालों से हमारी स्थिति में क¨ई सुधार नहीं हुआ है। जिंदगी जीने के लिए हमने भी जद्द¨जहत की हमारे बच्चे भी कर रहे हैं अ©र शायद उनके बच्चे भी करेंगे। मुझे उम्मीद है कि इस अंतहीन संघर्ष का अंत ह¨गा और कम से कम हमारी आने वाली पीढि़यां पाकिस्तानी के नाम से नहीं जानी जाएंगी और उन्हें हिंदुस्तानी होने हक मिलेगा। अब देखना यह है कि क्या नरेंद्र मोदी अपने वायदे पर कायम रहते हैं और जिनाओ देवी जैसे सैकड़ों पश्चिमी पाकिस्तान के शरणार्थियों की उम्मीदों पर खरे उतर पाते हैं या नहीं।
(चरखा फीचर्स)