भीड़ तंत्र का सबसे बड़ा खतरा यही है कि लोग दूसरों को कभी अपने मुकाबले खड़ा होते या चलते देखना नहीं चाहते हैं। हर कोई चाहता है कि वह आगे ही आगे रहे और दूसरे लोग भीड़ की तरह उनके निर्देशों का पालन करते हुए चुपचाप गर्दन झुकाये चलते रहें और वही सब कुछ करते रहें जैसा कि उन्हें रेवड़ की तरह हाँक कर ले जाने वाले लोग।
बात किसी भी स्तर की हो, छोटे-मोटे हुनर वाले उस्ताद की हो या समाज-जीवन के कई सारे मैदानों में जोर आजमाईश कर आगे बढ़ जाने की अंधाधुंध प्रतिस्पर्धा में रमे हुए लोगों की। हर किसी को प्रतिष्ठा और पैसों की इतनी भूख सवार है कि वह इसके लिए औरों का किसी भी स्तर तक उतर कर बलिदान ले सकते हैं या कि जमाने भर के षड़यंत्रों और गोरखधंधों का इस्तेमाल कर सकते हैं।
अपने आपको हमेशा आगे ही आगे देखने की प्रतिस्पर्धा इन लोगों में मरते दम तक बनी रहती है और जीवन के उत्तराद्र्ध या अवसान काल तक आते-आते इतनी बढ़ जाती है कि कुछ कहा नहीं जा सकता। स्थितियां कमोबेश सभी स्थानों पर एक जैसी ही हैं चाहे दुनिया का कोई सा क्षेत्र हो।
ज्ञानयोग, भक्तियोग और कर्मयोग और सांसारिकों से लेकर संसार छोड़ बैठे वैरागियों तक में यह मनोवृत्ति इतनी घर कर चुकी है कि कोई अपनी मुट्ठी को खोलना या कोई सा बंधन ढीला करना या औरों को चाभी सौंपना नहीं चाहता। बड़े से बड़े वैभवशालियों से लेकर भिखारियोें तक में यह स्वभाव बना हुआ रहता है। दैवी संपदा से भरेपूरे लोग इससे मुक्त जरूर रहते हैं।
छोटे-बड़े से लेकर हर किसी को यह चिंता सताये जरूर सताये रखती है कि कोई दूसरा उनसे आगे नहीं बढ़ जाए, उनसे ज्यादा कुछ न पा ले और ऎसा कुछ नहीं कर डाले कि उसकी प्रतिष्ठा का परंपरागत ग्राफ दूसरों से छोटा हो जाए। अपने कद, मद और पद-प्रतिष्ठा को हमेशा बरकरार रखने के लिए आदमी श्मशान में भस्मीभूत होने के लिए ले जाए जाने तक भिड़ा रहता है। इसके लिए अपनी मनुष्यता को किसी भी हद तक त्यागने या स्वाहा कर दिए जाने के लिए वह अपने आपको तैयार रखता है।
उसे हमेशा प्रत्यक्ष और तात्कालिक फल की अपेक्षा होती है और ऎसे में इंसानियत के सारे दायरों और सीमाओं को एक तरफ छिटक कर वह अपने ही अपने काम और लाभ के लिए किसी भी स्तर तक नीचे गिर जाने के लिए उतावला और उद्विग्न बना रहता है।
यही कारण है कि अपने यहाँ घोर दासत्व की स्वैच्छिक स्वीकार्य परंपरा खून के कतरों तक में इतनी जमी हुई है कि इसे पिघलाना कोई आसान काम नहीं है। गुरु-शिष्य, उस्ताद और जमूरे, बोस और मातहत के बीच की दूरियां इतनी बढ़ी हुई हैं कि हर कोई गुरु या उस्ताद बने रहना चाहता है और इसलिए चेले-चपाटियों और अनुचरों के रूप में उसे भीड़ की हमेशा तलाश बनी रहती है।
आजकल तो गुरुओं ने कमाल ही कर दिया है। जहाँ देखें वहाँ गुरु, महागुरु और गुरुघण्टाल ही नज़र आते हैं। ये लोग भी अब गुरु, बोस या सर-सर की आवाजों से ही प्रसन्न होते हैं और तभी उनका बोसत्व या नेतृत्व धन्य होता नज़र आता है।
समाज या क्षेत्र से लेकर पूरी दुनिया उन चतुर लोगों के पीछे ही भागती नज़र आती है या भागने को विवश है जिन्हें जीने और मस्ती से जीने के लिए अपने पीछे अनुचरों की फौज चाहिए। इसलिए इस किस्म के लोग हमेशा इस फिराक में रहते हैं कि लोग आगे न आ पाएं, वे अनुचरों के रूप में पीछे-पीछे बने रहें और वे आगे-आगे अपने जादू चलाते रहें। फिर अंध श्रद्धा से भरे अनुचरों की रेवड़ें हों, तब तो बात ही क्या है।
हम सभी को वे ही लोग सर्वाधिक पसंद आते हैं जो बिना सोचे-समझे हमारी हाँ में हाँ करते रहते हैं, हमारा जयगान करते हुए आगे-पीछे घूमते और हमारी परिक्रमा करते रहते हैं और हमारी इच्छा के मुताबिक वो सब करते रहते हैं जो हम चाहते हैं।
भारतभूमि रत्नगर्भा वसुन्धरा है जहाँ दुनिया के तमाम विषयों के एक से बढ़कर एक ज्ञाता, विशेषज्ञ और निष्णात लोगों की कोई कमी नहीं है लेकिन हमारी अनुचरी परंपरा और दूसरों को आगे नहीं आने देने की कुटिल तथा संकीर्ण मनोवृत्ति का ही परिणाम है कि मौलिक हुनर और बौद्धिक महा ऊर्जाओं से परिपूर्ण यह महान शक्ति स्रोत पीछे रह जाता है और फिर पलायन की ओर उन्मुख हो जाता है।
यह बात सभी को याद रखनी चाहिए कि हुनरमंद और बौद्धिक सामथ्र्य से परिपूर्ण लोग स्वाभिमान के पूरक होते हैं और ऎसे में वे अनुचरी बर्दाश्त नहीं कर पाते हैं। आज विभिन्न क्षेत्रों में यह संकट उत्पन्न हो जाता है कि आज जो हैं उनके बाद कौन? इस विषमता का मूल कारण हम ही हैं जिन्होंने अपने साथियों को तलाशने और आगे लाने की बजाय अपने घृणित स्वार्थों के दायरे में कैद रहते हुए दूसरे लोगों को पनपने का मौका ही नहीं दिया।
समाज या जीवन का कोई सा क्षेत्र हो, हर कहीं अनुचरी परपंरा बंद होनी चाहिए तथा जो लोग काबिल हैं उन्हें समान साथी व सहयोगी के रूप में स्वीकारा जाना चाहिए। हम दूसरे हुनरमंद लोगों को अपना मददगार जरूर बनाते और स्वीकारते हैं मगर उसमें भी हमारी सोच यही रहती है कि अंधानुचर ही बने रहें।
हम अपनी कुटिलताओं को छोड़ कर सोचें तो हमेशा यह अहसास होगा कि ऎसे लोगों को साथी के रूप में समकक्ष स्वीकारने और साथ-साथ आगे तक ले चलने से हमारा भी भला होता और समाज तथा देश को भी ऎसे लोगों की फौज मिलती जो कि देश के काम आए। ऎसे में हमारे बाद कौन, यह संकट भी समाप्त हो जाता। पर हम ऎसा नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि हम सभी आशंकित हैं कि हमसे ज्यादा और कोई दूसरे हुनरमंद सामने आ गए तो हमारा क्या होगा? इसी भय और आशंका की वजह से समाज और देश को योग्यतम व्यक्तियों का पूरा-पूरा लाभ नहीं मिल पा रहा है और हम सारे के सारे इस भ्रम और अहंकार में जी रहे हैं कि हम ही हम हैं, हम ही हम बने रहें और हमारे बाद कौन? यह बात हमेशा व्योम में छायी रहे।
अब भी समय है, बोसत्व, अधीश्वरत्व और अधिनायकत्व को छोड़ें और सहयोगियों को अपने दास, अंधभक्त या अनुचरों की बजाय साथी के रूप में आदर-सम्मानपूर्वक स्वीकारें और अपने मुकाबले प्रतिष्ठित करने पर ध्यान दें तभी समाज के प्रति हम उऋण हो सकते हैं। समाज और मातृभूमि का कर्ज उतारने के लिए अपने अधीश्वरवादी चिंतन और अहंकार को छोड़ना और देश सेवा के लिए अधिक से अधिक योग्यतम लोग सौंपना ही देश की सच्ची सेवा है।
---डॉ. दीपक आचार्य---
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