प्रत्येक कर्म, व्यक्ति और वस्तु के प्रति जब तक अनासक्त भाव रहता है तभी तक कर्मयोग की भावनाओं का अविरल प्रवाह निरन्तर बना रहता है। यह प्रवाह ही है जो अपने आप स्व-लक्ष्य की ओर गतिमान रहता है और अपने निर्धारित समय पर प्रतिफल देता रहता है।
यह प्रवाह अपने आप में नैसर्गिक होता है जिसमें न कोई ग्रह-नक्षत्रों की बाधाएं आती हैं, न और किसी भी प्रकार की दैहिक दैविक और भौतिक बाधाएं। जीवन में जब तक आसक्तिहीन कर्म होते हैं तभी तब उनका नैसर्गिक प्रवाह सार्वभौमिक और सार्वजनीन श्रद्धा के साथ जारी रहता है, जरा सी भी आसक्ति किसी भी रूप में सामने आ जाने पर कर्म निरापद नहीं रहता, वह किसी न किसी ध्रुव या दिशाओं की ओर थोड़ा झुक ही जाता है। और इस वजह से प्राकृतिक प्रवाह बाधित होता है क्योंकि किसी व्यक्ति विशेष से जुड़ जाने के उपरान्त उसकी पूर्ण शुचिता न रह पाती है, न संभव है।
दूसरी ओर जिस व्यक्ति या स्थान विशेष से आसक्ति हो जाती है उसके कर्मफल, भाग्य, ग्रह-नक्षत्र और अच्छे-बुरे आभामण्डल का प्रभाव भी असर डालता ही है। और यही कारण है कि जिस वस्तु या व्यक्ति के प्रति मोह जग जाता है उसकी ओर कर्षण शक्ति का जोर लगता ही है।
हमारे जीवन का कोई सा कर्म हो, उसमें सफलता पाने के लिए यह जरूरी है कि कर्म के प्रति एकाग्रता और तीव्रता अधिक से अधिक बनी रहे, तभी संकल्प की कर्षण शक्ति को और अधिक प्रभावी एवं फलदायी बनाया जा सकता है। इस वेग के बीच कोई सा तत्व आ जाने पर संकल्प का वेग कम होता है और लक्ष्य से दूरी अपने आप बढ़ जाया करती है।
मूल रूप में इंसान के लिए मोह और आसक्ति ही वे बड़ी बाधाएं हैं जो उसे लक्ष्य से भटकाने और दूर करने में समर्थ होती हैं। कोई सा काम करें, उसके प्रति तल्लीन होकर करें तथा एक समय में एक ही लक्ष्य रखें ताकि लक्ष्य प्राप्ति के लिए संकल्प बलवान रह सके और पूरी एकाग्रता, ऊर्जा और तीव्रता अपने किसी एक निर्धारित लक्ष्य की ओर बनी रह सके।
ऎसा नहीं होने पर संकल्पों का विभाजन कई व्यक्तियों और विषयों में हो जाने पर तीव्रता और ताकत दोनों टूट कर बिखर जाते हैं तथा चिंतन की धाराओं का विभाजन होते ही संकल्प विभक्त हो जाता है, तीव्रता मंद होकर बिखरने लगती है और लक्ष्य प्राप्ति संदिग्ध हो उठती है।
जीवन में कोई सा कर्म हो, सफलता चाहें तो संकल्प एक रखें, एक समय में एक ही लक्ष्य का चिंतन रखें और उसी दिशा में बार-बार प्रयास करते रहें। अपने लक्ष्य पाने में किसी और को बीच में न आने दें, न रखें, और न ही किसी और का चिंतन करें। क्योंकि जब भी हम एकाग्र होकर ऊर्जा पाने, शक्ति संचय करने और आगे बढ़ने का प्रयास करते हैं, उस दौरान किसी दूसरे का नाम या चेहरा हमारे जेहन में आते ही हमारे अवचेतन में उसके लिए आतिथ्य भाव जग जाता है और सूक्ष्म तत्वों के तार उससे जुड़ जाते हैं तथा इनके माध्यम से हमारी ऊर्जाओं और संकल्प की तीव्रता का क्षरण होने लगता है। और यह सारी ऊर्जा अपने भीतर से काफी कुछ अंश उस दिशा में मोड़ देती है जिसके बारे में हम चिंतन करने लग जाते हैं।
सामने वाले व्यक्ति के प्रति हमारा मोह जितना अधिक होगा, उतनी अधिक तीव्रता और घनत्व के साथ हमारी संचित ऊर्जा उस दिशा में उस व्यक्ति की ओर निकल जाती है। हमारे जीवन की बड़ी-बड़ी असफलताओं के पीछे हमारी अपनी ही गलती होती है क्योंकि हम लोगों के प्रति आसक्त हो जाते हैं और यह आसक्ति मोहांधता का स्वरूप ग्रहण किए बगैर कभी नहीं रहती।
इस अंधे मोह का अपने आप में कोई अस्तित्व नहीं होता, सिवाय हमारे जीवन में भटकाव के । कई बार हमारी मोहांधता का फायदा उन लोगों को बिना कुछ मेहनत किए मिल जाता है जो हमसे जुड़े हुए तो होते हैं पर उनके लक्ष्य व्यवसायिक और हितसाधी होते हैं। जबकि हम अपने आप में निष्कपट होते हैं, हमारे भीतर न व्यवसायिक बुद्धि होती है, न कोई कुटिलता।
अधिकांश लोग अपने स्वार्थों से संबंध रखते हैं और ऎसे लोगों से बराबर दूरी बनाये रखनी चाहिए लेकिन मन के साफ और सच्चे लोगों के लिए ऎसा कर पाना संभव नहीं होता है इसलिए ऎसे ऊर्जावान लोगों के भोलेपन का फायदा उठाकर दूसरे लोग इन्हें मोह और आसक्ति में फंसा कर इनका पूरा-पूरा फायदा लेने के मनोविज्ञान में माहिर हो चले हैं।
माहौल सभी जगह एक सरीखा ही है। संभलना हमें ही पड़ेगा वरना जमाने के लोग बिजली चोरों की तरह हमारी संचित ऊर्जा और प्रभावों पर डाका डालने से पीछे नहीं रहने वाले हैं। इसलिए जीवन के लक्ष्यों को पाना चाहें तो एक समय में एक लक्ष्य रखें, लक्ष्यों की प्राप्ति के समय किसी का चिंतन न करें, किसी के प्रति भी मोहांध या आसक्त न रहें, वरना या तो मोह के अंधे गलियारे नसीब होंगे अथवा लक्ष्य पाने का सुकून और तरक्की की रोशनी। फैसला हमारे हाथ में है।
---डॉ. दीपक आचार्य---
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