- कमाई की तुलना में अधिक खर्च की खींझ से जूझ रहे लोगों पर 10-15 फीसदी तक का पड़ा अधिक भार
- सरकार के पास भंडार है तो आम आदमी के जेब की स्टाॅक क्यों खत्म किया जा रहा
- महंगाई की वजह मानसून देरी है तो इससे निपटने के उपाय पहले क्यों नहीं किए गए
- क्या जमाखोरों पर कार्रवाई सिर्फ इसलिए नहीं हो रही कि वह पैरलल सरकार चला रहे है
- आजादी के 62 सालों बाद क्या सरकार अब भी मानसून पर ही निर्भर है
- पिछले दो-तीन दिनों के भीतर सब्जियों सहित अन्य जरुरी के खाद्य सामाग्रियों में 10 फीसदी का उछाल
- थोक मंडियों के सापेक्ष खुदरा बाजार में सामानों के दाम 10-15 रुपये अधिक
- मानसून भी दे रहा दगा, महज 37 मिली हुई बारिश, 60 फीसदी कम
- पिछले साल के मुकाबले 46 फीसदी कम है रोपाई
अच्छे दिन आने वाले है,,,,का टाॅफी दिखाकर सत्ता हथियाने वाले नरेन्द्र मोदी ने अच्छे दिन की कड़वी डोज देकर जनता की नींद उड़ा दी है। सरकार के एक महीने की कामकाज व बयानों पर ध्यान देने पर पता चलता है, कड़वी दवा का असर सिर्फ गरीब तबके पर है। गरीब व मध्यम वर्ग के हितों के लिए कोई ठोस पहल नहीं किए गये। रेल किराया, फिर पेटोल-डीजल, आलू-प्याज, दूध सहित अन्य रोजमर्रा की जरुरतों की खाद्य सामाग्रियों के दाम वृद्धि ने गरीब की परेशानियां और बढ़ा दी। बढ़ी कीमतों के चलते गरीब व मध्यम तबके को अब और अधिक जेब ढीली करनी पड़ेगी। क्योंकि कमाई की तुलना में अधिक खर्च की खींझ से जूझ रहे लोगों पर 10-15 फीसदी तक का अधिक भार पड़ने वाला है। चीनी-चाय-पत्ती की तेजी ने पहले से ही हाथ टाइट कर रखा है। अब साल का 13वां गैस सिलेंडर भी तय कीमत में साढ़े 16 रुपये की वृद्धि गृहणियों के बजट को ही झकझोर दिया है। जबकि चीनी उद्योग को 4 हजार करोड़ का ब्याज मुक्त कर्ज देने के बावजूद दाम बढ़ गए। गन्ना किसान अब भी कर्ज के बोझ से कराह रहे है, लेकिन बकाया भुगतान नहीं हो सका। पूर्व से ही आॅटोमाबाइल इंडस्टी को इक्साइज ड्यूटी में छूट की अवधि 6 माह के लिए और बढ़ा दीै।
हालांकि सरकार कीमतों में बढ़ोत्तरी को जमाखारी बता रही है। कहा जा रहा है कि सरकार के पर्याप्त अनाज है और महंगाई कम करने के प्रयास किए जा रहे है। सवाल यह है कि अगर सरकार के पास भंडार है तो आम आदमी के जेब की स्टाॅक क्यों खत्म किया जा रहा। महंगाई की वजह मानसून देरी है तो इससे निपटने के उपाय पहले क्यों नहीं किए गए। क्या जमाखोरों पर कार्रवाई इसलिए नहीं हो पा रही कि वह पैरलल सरकार चला रहे है। आजादी के इतने सालों बाद क्या सरकार अब भी मानसून पर ही निर्भर है। इस जमाखोरी से आखिर किसकों लाभ हो रहा। इससे निपटने के कारगर उपाय क्यों नहीं किए जा रहे। ये सवाल जनता को अच्छे दिनों का सब्जबाग दिखाने वाले के प्रति तो चूभ ही रही है, अपने सोर्स आॅफ इनकम की भी चिंता खाएं जा रही है।
यह किसी से छिपा नहीं कि आलू व प्याज की अपेक्षित पैदावार और आपूर्ति के बावजूद पिछले दो सप्ताह से लगातार दाम चढ़ते जा रहे है। और सरकार जब तक सक्रिय होती तब तक नुकसान हो चुका था। जमाखोरी व कालाबाजारी करने वालों पर प्रभावी अंकुश लगाने के साथ-साथ जिंसों के वायदा कारोबार के बारे में भी नए सिरे से विचार करने की जरुरत है। इसलिए और भी क्योंकि यह धारणा गहराती जा रही है कि यह खाद्य पदार्थ महंगाई बढ़ाने में सहायक साबित हो रहा है। यह सही समय है कि इसकी समीक्षा हो कि जिंसों के वायदा कारोबार को जिस उद्देश्य से शुरु किया गया था उसकी पूर्ति हो पा रही है या नहीं। यदि यह केवल कारोबारियों के हितों को पूरा कर रहा हो तो फिर इसे जारी रखने का कोई मतलब नहीं। मूल्य वृद्धि पर नियंत्रण पाने के लिए केन्द्र व राज्य सरकारों को मिलकर काम करने के साथ यह भी देखना होगा कि विचैलियों पर लगाम कैसे लगे। इसी तरह देश के अलग-अलग हिस्सों में एक ही जिंस के दामों में भारी अंतर को पाटने की दिशा में कारगर उपाय करने होंगे। चूंकि महंगाई ने सिर उठा लिया है इसलिए इसमें हर्ज नहीं कि केन्द्र सरकार उन कदमों की सत्त समीक्षा करें कि जो उसने महंगाई पर काबू पाने के लिए उठाएं है। यह तभी संभव हो पायेगा जब राज्य सरकारें अधिक सतर्कता का परिचय देंगी। चूंकि अभी केवल मौखिक या कागजी सतर्कता दिखाई जाती है इसलिए वह मुश्किल से नियंत्रित दिखते है।
प्रधानमंत्री ने जो जमाखोरों व कालाबाजारी करने वालों के खिलाफ मामलों की जल्द सुनवाई के लिए राज्यों को विशेष अदालतें गठित करने का जो सुझाव दिया उसके संदर्भ में समय ही बतायेंगा कि वह ऐसा करते है या नहीं। राज्यों को इससे अवगत होना ही चाहिए कि जमाखोरी व कालाबाजारी करने वाले बहुत तेजी से सक्रिय हुए है। सवाल यह है कि गैर भाजपा सरकारें क्यों चाहेंगी कि महंगाई कंटोल हो या जमाखोरी-कालाबाजारी रुके। खासकर यूपी की अखिलेश सरकार महंगाई के खिलाफ जिस तरह मोदी सरकार के खिलाफ मोर्चा खोला है उससे तो यही लगता है कि जल्दी से लोग भाजपा से नाराज हो जाएं और चुनाव में उसके गुंडाराज को ही लोग अच्छा समझकर उसके पक्ष में वोटिंग करें। पिछले दो-तीन दिनों के भीतर सब्जियों सहित अन्य जरुरी के खाद्य सामाग्रियों में 5-6 रुपये की वृद्धि हो गई है। इसका खामियाजा आम जनता को भुगतना पड़ रहा है। जो प्याज मंडियों में व्यापारियों को 10-15 रुपये किलों पड़ रहा है उसके खुदरा बाजार में दाम 25-30 रुपये है। यही हाल टमाटर, तर्रोई, भिंडी, साग, आलू, लहसून, अदरक, फल आदि के है। ये सभी सब्जियां खुदरा बाजार में दुगुने-तीगुने दाम पर बेची जा रही है। व्यापारी इस वृद्धि को पेटोल-डीजल के दामों में बढ़ोत्तरी बता रहे है। उनका कहना है कि इसका असर हर व्यवसाय पड़ता है। टांसपोटेशन महंगा हो जाता है। इससे वस्तुओं का दाम बढ़ना लाजिमी है और उपभोक्ता पर असर पड़ना स्वाभाविक। सरकार को सस्ती परिवहन व्यवस्था पर ध्यान देना चाहिए। मूल्य वृद्धि का सर्वाधिक असर निर्यातपरक ग्रामीण कुटीर उद्योग कालीन, साड़ी, दरी आदि पर ज्यादा पड़ेगा। लागत पर खर्च बढ़ जायेगा, जबकि अंतराष्अीय बाजार में वह अचानक अपने उत्पाद का कीमत नहीं बढ़ सकते।
सरकार को समझना चाहिए कि जो एक-दो सौ, हजार नहीं बल्कि लाखों वाहनें खरीद सकता है उसके लिए 5-10 हजार देने में बिल्कुल कठिनाई नहीं होगी। टेनों के जनरल बोगियों में ठूसें यात्रियों के परेशानियों को आखिर क्यों नजरअंदाज किया गया। सांसदों, मंत्रियों व उनकी हवाई यात्रा सहित अन्य सुविधाओं पर गरीबों का पैसा पानी की तरह बहा रही है, लेकिन गरीब पर ध्यान नहीं दे रही। 2012 में संप्रग सरकार ने एअर इंडिया के 75 अरब रुपये कर्ज की रिस्टक्चरिंग करवाई, बावजूद इसके वह 4 हजार करोड़ के घाटे में है। सवाल उठना लाजिमी है कि सरकार एअर इंडिया के रिस्टक्चरिंग के बजाय रेल सुविधा की रिस्टक्चरिंग क्यों नहीं करवाई। अमीरों की हवाई यात्रा सस्ता करने के बजाए रेल यात्रा की सुविधा क्यों नहीं बढ़ाई गई। जनरल बोगियों में लाई की तरह ठूसकर चलने वाले गरीब तबके को क्यों नहीं ध्यान में रखा गया। आटोमाबाइल इंडस्टी को छूट देने के बजाय घर का बजट संभालने में महती भूमिका निभाने वाली गृहणियों की रसोई गैस के उपभोक्ताओं को क्यों नहीं छूट दी गई। तमाम भ्रष्टाचार के बावजूद मनरेगा से शत-प्रतिशत ना सही लेकिन एक बड़े तबके के गरीब वर्ग को काम मिल रहा था, फिर भी उसके बजट में वृद्धि नहीं की जा सकी। ताज्जुब होता है कि हजारों करोड़ के बकाएदार उद्यमियों के पास बैंकों के कर्ज देने के पैसे नहीं जुट रहे लेकिन आईपीएल व फार्मूला वन में आसानी से करोड़ों फूंक देते है। जबकि कर्ज के बोझ से दबे किसानों की आत्महत्या का अंतःहीन सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा। सवाल उठना लाजिमी है कि मनमोहन सिंह की ही भाषा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी क्यों बोल रहे है।
वैसे भी मानसून देरी के चलते अब और सूबे में सूखे की आहट है। ऐसे में महंगाई का संकट भी बना हुआ है। जून तक की तय लक्ष्य की तुलना में सिर्फ 4 प्रतिशत तक बुआई हुई है। इसमें भी नहरीय इलाकों में बोए जाने वाले गन्ने और कपास को छोड़ देते तो खाद्यान दालों व तिलहन का हिस्सा तोलगभग 0 प्रतिशत है। कृषि विभाग ने मुख्यमंत्री को जो रिपोर्ट भेजी है उसमें सूखे के हालात दर्शाए गए है। कहा गया है कि सूखे के चलते उत्पादन प्रभावित होगा। पिछले साल लक्ष्य की तुलना में अब तक 10 प्रतिशत बुआई हो चुकी थी। पिछली बार भी मानसून थोड़ी देर से आया था। उससे पिछले 3 सालों में विभिन्न इलाकों में बुआई 20-35 प्रतिशत प्रभावित हुई थी। कम बारीश का सबसे अधिक संकट धान की फसल पर है। खेतों में नर्सरी तैयार है लेकिन ट्ूबवेल या नहरों के भरोसे सिंचाई नहीं हो रही। बिजली संकट बड़ी वजह बनी हुई है। जून में धान की नर्सरी का लक्ष्य सवा चार लाख हेक्ेयर के सापेक्ष सवा तीन लाख हेक्टेयर ही हो पाया है, जबकि पौने आठ लाख हेक्टेयर रोपाई हो चुकी थी, जो पिछले साल के मुकाबले 46 फीसदी कम है। कृषि विभाग के मुताबिक जून में सिर्फ 37 मिमी हुई बारिश जो सामान्य से 60 फीसदी कम है।
---सुरेश गांधी---