सिसकारियों से गूंजता वतन। अश्रुओं से डबडबाता चमन। चीथड़ों में बंट रहा अस्तित्व। लेकिन ये अस्तित्व जात का है या जाति का। जी हां जात यानि पुरुष और जाति यानि । आप समझ गए होंगे। स्त्रीत्व नारित्व और ममत्व। सब कठघरे में है। बलात्कार और शोषण के तमगे जात ने जाति के साथ चमका दिए चस्पा कर दिए। बदायूं भी रोया। बरेली भी उतन गया। मुजफ्फरनगर तो छाती पीट पीट कर बेचारा बन गया। लोगों के दिलों में जल रही आग से फुसफुसाई राजनीति को सेंका भी गया। पर कोई ख़ास असर नहीं। हां राजनीति के स्वामियों में चढ़ावा जरूर चढ़ गया।
कैमरों ने चमकने में कोई कसर नहीं छोड़ी। ख़बर बनाकर दर्द को स्याही के साथ लपेटकर बेच दिया। जिसमें से कुछ बदायूं की खातिर शर्मिंदा हुए। और कुछ बरेली के लिए। सियासत की साखों को दोनों हाथों से हिलाया। लेकिन जवाब सूखे पत्तों के रूप में ही मिले। कुछ अब सोये। कुछ तब सोये। कुल मिलाकर सब सो गये। और बिखरी ख्वाइशए इज्जत का दर्द अभी भी पेड़ों में लटक कर दम तोड़ रहा है।
सितारे लपेटे हुए कमीजें आस्तीनों को समेटकर पंचनामा भर रही हैं। लेकिन ये पंचनामा किसी नए दर्द का है। तख्तियां और मोमबत्तियां दामिनी समेत न जाने कितनी इज्जतों के लिए बह चुकी हैं। पर क्या बदलाव हुआ। क्या नारित्व महफूज़ हो पाई। फरमान आये। अरमान भी चिहुंक कर उठ खड़े हुए। सुरक्षा की खातिर। न्याय के लिए। लेकिन दर्द की दीवारों में लगातार बिखरती इज्जत का ईंट और गारा चढ़ाया जाता रहा। आकड़े अभी भी बढ़ रहे हैं। देश शर्मशार अभी भी हो रहा है। फिर क्या मायने परिवर्तन के। फरमान के। दोगलेपन और खोखलेपन से अभी भी मानसिकताएं लबरेज़ हैं।
प्रयासों की फेहरिस्त में कोई विलन घुस गया। जो इंसानियत को हर दिन हर पल उछाल रहा है। अन्तर्वासना जैसी कई साइट्स वहशियत को हर पल जगाने में जुट गयीं। और सबसे ज्यादा पाठकों का दावा करने लगी। पोर्न फ़िल्में मोबाइलए लैपटॉप और कैसेट्स में बचपन को तोड़ती रहीं। रिश्ते किश्तों में टूटते रहे।और कुछ हद तक रिश्ते स्वर्गीय भी हो चले।
फिलहाल सार्थक क़दमों की ज़रुरत है। आपके भी। हमारे भी। तभी नीति बदलेगी। नियत में भी बदलाव लाज़मी है।
---हिमांशु तिवारी---
कानपुर
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