- आज से शुरु हो रहे बजट में करना होगा विशेष प्राविधान
- सरकार को भंडारण की मानिटरिंग करनी होगी
- मंडी समिति कानून को हरकत को लाना होगा
- सरकार की नियत और नीति साफ रहे तो जमाखोरी रोकी जा सकती है
पाकिस्तान हर रोज सीमा पर बमबारी कर रहा, चीन धमकी दे रहा कि अरुणाचल व कश्मीर उसका है, इराक में हजारों भारतीयों की जान सांसत में है, गुजरात सीएम आनंदीबेन अपने लिए 100 करोड़ की जेट प्लेन खरीद ली, अमित शाह को जेड प्लस की सुरक्षा, सैकड़ों सांसदों के पांच सितारा होटल में रहने के बिल आयेंगे, तब कैसे महंगाई कम होगी। महंगाई तो दूर तक होगी जब दृढ़ इच्छा शक्ति से इससे मुकाबला हो। लेकिन ऐसा हो नहींपा रहा। महंगाई 6 फीसदी की दर से लगातार बढ़ रही है। जमाखोरी ने सरकार की चिंताएं बढ़ा दी है। आधुनिकीकरण समय की जरुरत है लेकिन उसके लिए भी न तो विजन है और न ही सटीक कार्ययोजना।
वित मंत्री अरुण जेटली एक ओर तो महंगाई को जायज ठहराते हुए कह रहे है, सुविधा पाने के लिए जेब से अधिक खर्च करना ही होगा, लेकिन कोई उनसे पूछे कि क्या बुनियादी जरुरते भी सुविधा के दायरे में आती है। जिस देश में सबसे बड़ी महामारी कुपोषण और बेरोजगारी हो, जहां अस्पताल-स्कूल न हो, जहां लाखों लोग बिना दवा के दम तोड़ देते हो, जहां बच्चों को मिड-डे-मील की उम्मीद में स्कूल भेजा जाता हो, वहां जमीनी हकीकत को नजरअंदाज करके सपने बेचना कहां तक जायज है। सपनों का सौदागर बनकर सत्ता तो पा ली जाती है, लेकिन उसके बाद सिर्फ बाते ही होती है। प्रस्तावित सौ शहर और बुलेट टेन के सपने आखिरकार इन्हीं लोगों के गांव-खेत-जंगल उजाड़कर तो बनेंगे। इतना ही नहीं महंगाई वृद्धि को जमाखोरी वजह बताया जा रहा। लेकिन कार्रवाई भी तो सत्ता को ही करनी होगी। जो दृढ़ इच्छाशक्ति के बगैर संभव नहीं। हो भी नहीं सकता, क्योंकि पूंजीवादी व्यवस्था की जननी भाजपा ही है। आज देश में जमाखोरी को मुद्दा बनाकर छोटे व्यापारियों पर तो नकेल कस दी जाती है, लेकिन बड़े व्यापारी बड़े ही सफाई से बच जाते है। व्यापारियों के लिए स्टाॅक रखने की कोई सटीक सीमा तय नहीं है जिससे वे सूखे की आहट पाते ही जमाखोरी करने लगते है। नतीजा यह होता है कि बाजार में खाद्य पदार्थो की कमी होने लगती है और दाम बढ़ जाते है। इस स्थिति के लिए काफी हद तक प्रशासनिक अधिकारी जिम्मेदार होते है। प्रशासनिक अधिकारी ही इस तरह के भ्रष्टाचार को बढ़ावा देते है। ऐसा नहीं है अचानक से महंगाई बढ़ जाती है। अगर शुरु से ही सामानों के दाम पर निगरानी रखी जाएं तो ऐसी स्थिति पेदा होने से बचा सकता है। सरकार की नियत और नीति साफ रहे तो जमाखोरी रोकी जा सकती है।
आम आदमी भूख से बिलख रहा है और दूसरी ओर गोवा के विधायक उन्हीं के पैसे पर ब्राजील जा रहे थे मैच देखने। मीडिया की हाय-तौबा पर दौरा रद्द होने के बावजूद पार्टी की मंशा तो आम आदमी के जेहन में कैद हो ही गई है। पिछले सवा महीने से महंगाई ने आम आदमी का जीना मुहाल कर दिया है। महंगाई पर पहले कांग्रेसी कान में तेल डाले हुए थे अब वहीं काम बीजेपी सरकार कर रही है। अरे आप तो कुछ अलग करने का दावा कर रहे थे न, तो कांग्रेसियों की तरह आपके भी मुंह पर पट्टी क्यों। पर सवा महीने हो गया पर पीएम की आवाज बंद है। मोदी ने 2011 में पीएम को एक रिपोर्ट सौंपकर कहा था कि वायदा कारोबार और महंगाई के बीच सीधा संबंध है और इसे तोड़कर आसानी से दाम नियंत्रित हो सकते है। लेकिन अब इस मुद्दे पर सबकी जीभ हलक में उतर गयी है, क्योंकि यही सारे वायदा कारोबारी तो पार्टी के फाइनैंसर है। हर कोई इसे मानता है कि अगर खाद्य पदार्थो के वायदा कारोबार पर कड़ाई से लगाम लगाई जाएं तो महंगाई नामक डायन को आसानी से कंटोल किया जा सकता है। भारतीय अर्थ व्यवस्था में वायदा कारोबार के प्रवेश ने किसानों और कीमतों को बेहाल कर दिया है। विपन्न किसान तो वायदा कारोबार के फायदे से वंचित ही रहेगा और टंच माल सटोरिए ले जाते रहेंगे। ये सौदे मुंबई स्थित दो बड़े कमारेडिटी एक्चेंजों में आॅनलाइन होते है, जिसके बारे में इंटरनेशनल खाद्य व कृषि संगठन ने भी स्वीकार किया था कि इन्हीं की वजह से कमोडिटी के दाम बढ़ते जा रहे है। बड़े-बड़े सटोरिए बिना मेहनत के रोज लाखों-करोड़ो का वारा-न्यारा कर रहे है और सजा पा रही है आम जनता। जमाखोरों ओर कालाबाजारियों के खिलाफ अब कड़ी कार्रवाई और स्टाॅक रखने की सीमा जैसे नए कदम में नया क्या है। यही तो यूपीए सरकार भी करती थी। बीजेपी ने अपने मेनोफेस्टों में जिस प्राइस स्टैक्लाइजेशन फंड का वायदा किया था, वह कहां है।
वर्ष 1950 में जमाखोरों पर नकेल कसने के लिए मंडी समिति कानून लाया गया था। मंडी समिति कानून असल में असल में जमाखोरी से बचाने के लिए बना था। लेकिन इसके तहत जिसको लाइसेंस मिला वो जमाखोरी कर रहे है। आज स्थिति यह है कि देश की बड़ी-बड़ी मंडियों में खुली बोली का प्राविधान नहीं है। सब्जियों और फलों के दाम का निर्माण आज भी रुमाल रखकर कर दिया जाता है। ऐसे नजारे आपकों देश के हर जगह देखने को मिल जायेंगे। ऐसा नहीं है कि सरकार को पता नहीं है। सरकार सबकुछ जानते हुए भी हाथ पर हाथ धरे हुए बैठी हुई है। नौकरशाहों की मिलीभगत से किसानों का खुलेतौर पर शोषण किया जा रहा है।
सरकार ने देश में प्याज की आपूर्ति में सुधार में के लिए 17 जून को न्यूनतम निर्यात मूल्य 300 डाॅलर प्रति टन तय किया था। घरेलू दाम कम नहीं हुए तो सरकार ने 2 जुलाई को इसे बढ़ाकर 500 डाॅलर प्रति टन कर दिया। हालांकि निर्यात मूल्य बढ़ने की वजह से निर्यात में काफी कमी आ गयी है। लेकिन इसके बावजूद देश में प्याज के दाम लगातार बढ़ रहे है। इस वर्ष उत्पादन भी बढ़ा है। इसका सीधा अर्थ है कि व्यापारी फायदे के लिए बड़े पैमाने पर जमाखोरी कर रहे है। सरकार ने आलू पर भी 450 डाॅलर प्रति टन निर्यात शुल्क लगा दिया है। यह कदम भी आलू के दामों में बढ़ोत्तरी नहीं रोक पाया है। देश में साढ़े 46 लाख टन आलू का सालाना उत्पादन होता है। देश में पिछली बार 168 लाख टन प्याज का उत्पादन हुआ था इस बार बढ़कर 200 लाख टन होने के अनुमान है। सरकार कसे सबसे पहले कदम उठाने की जरुरत है भंडारण की मानिटरिंग की। व्यापारी छोटा हो या बड़ा वह एक टन स्टाॅक रखता है या सौ टन सरकार को वह जानकारी दें। देश में जमाखोरी रोकने के लिए सरकार सक्षमह ै और कानून भी पहले से ही बने हुए है बस उसे इमनदारी पूर्वक अमल में लाने की जरुरत है।
---सुरेश गांधी---