हर इंसान की अपनी सीमाएं हैं, अपना-अपना सामथ्र्य है। कोई जरूरी नहीं कि हर काम हरेक इंसान कर ही सके। कई काम ऎसे हैं जो एक इंसान कर सकता है, दूसरा नहीं। हर व्यक्ति की प्रतिभा अलग-अलग होती है और ऎसे में इंसान की पूरी शक्ति का उपयोग तभी है जबकि उससे वे ही काम लिए जाएं जो उसकी मौलिक प्रतिभा से जुड़े हुए हैं। मौलिक प्रतिभा वाले कामों से इंसान में कार्य संपादन की क्षमता दोगुनी हो जाती है और कार्य आरंभ से लेकर अंत तक उसमें उत्साह बना रहता है। जबकि अरुचि वाले कामों में हमेशा कई खतरे सामने आते ही हैं। ऎसे काम न समय पर पूरे होत हैं न गुणवत्ता के साथ, और कार्य संपादन का पूरा समय उत्साहहीनता बनी रहती है सो अलग।
आजकल हर इंसान को हर काम सौंप देने की मनोवृत्ति है वहीं इंसान भी ऎसा हो गया है कि उसे लगता है कि कोई सा काम हो, वह कर सकने में समर्थ है। मगर हकीकत में ऎसा होता नहींं है। दोनों ही पक्षों को समझना होगा और वे ही काम हाथ में लिए जाने चाहिएं जिसमें हमारा अधिकार हो। कामों का कोई पार नहीं है। कुछ लोग मस्ती के साथ काम करते हैं और उन्हें पता होता है कि जितने घण्टे रोजाना मिल पाते हैं उनमें कितना काम करना संभव है। इसलिए इन लोगों को काम का बोझ नहीं सताता।
मगर खूब सारे लोग ऎसे हैं जो हर काम को ओढ़ लिया करते हैं अथवा कार्य की अवधि के मुकाबले कई गुना कामों को पूरा कर डालने का लक्ष्य बनाने का दुस्साहस कर बैठते हैं। और यही वजह है कि पूरी क्षमता लगाने के बावजूद समय पर सारे काम नहीं हो पाते हैं और इस कारण ऎसे लोगों के दिमाग में हर क्षण अधूरे और सोचे गए कामों के पूरे न होने का महा तनाव बना रहता है।
इस तनाव के मारे ये लोग भूतकाल के अनुभवों और सुकूनदायी घटनाओं, दृश्यों आदि का आनंद नहीं ले पाते। वर्तमान का सारा आनंद सम सामयिक तनावों की भेंट चढ़ जाता है। और जब इंसान मानसिक और शारीरिक रूप से असहज एवं अस्वस्थ हो जाता है तब उसे कोई काम सूझता ही नहीं।
इस प्रकार कामों का बोझ और तनाव रखने वालों का भूत, भविष्य और वर्तमान सब कुछ खराब ही खराब रहता है और वे मनुष्य के रूप में लिए जाने वाले तमाम आनंदों से दूर रहते हैं तथा यंत्रवत जीवन जीते रहते हैं। कई बार हालात पूरी तरह अपने अनुकूल होते हैं पर अपन लोग अपने आपको अण्डर एस्टीमेट और सामने वालों को ओवर एस्टीमेट करते हैं इस कारण से निराधार आशंकाएं पाल लिया करते हैं।
इनसे बचना चाहिए। हमसे बड़ा कोई नहीं। ईश्वर को सामने रखें। हर कर्म साधना है। हमेशा याद रखें कि हमसे बड़ा साधक कोई नहीं। जो साधना करता है, ईश्वरीय तत्व को जानता है, ईश्वर का परम भक्त और श्रद्धावान है वह हर लड़ाई में जीतता है क्योंकि आजकल जो लोग हमारे सामने आ रहे हैं उनमें काफी सारे निकम्मे और कामचोर हैं इस कारण उनमें कर्मयोग की दिव्य ऊर्जा का पूर्ण अभाव है। रोजाना जितना हो सके, उतना काम ही हाथ में लें। लक्ष्यों मेंं अपने आपको बांधे नहीं बल्कि दिन के कार्य घण्टों के हिसाब से आनुपातिक कार्य पूर्णता का लक्ष्य सामने रखें और शाम को यह सोच कर काम छोड़ें कि आज का कोई काम लंबित नहीं है, जो है कल देखा जाएगा। जब भी कार्यस्थल से घर की ओर जाएं, कामों के मामले में पूरी तरह खाली होकर जाएं। इसका अपना अलग आनंद है।
हमेशा यह विचार सामने रखें कि हमारा कोई काम लंबित नहीं है। ये सांसारिक काम हमें बांधते हैं। अपना कोई काम नहीं होता। जितना ईश्वर ने बौद्धिक और शारीरिक शक्तियों से नवाजा है उतना काम करो, न हो तो कोई बात नहीं, आने वाले लोग करेंगे। कुछ उनके लिए भी रहने दो। अपने आपको ही भट्टी में झोंकते रहने से कुछ नहीं मिलेगा।
ये सारे काम गंगा के प्रवाह की तरह हैं, अपने आप होते रहेंगे। इनकी चिंता मत करो। र्निलिप्त होकर काम करो। ये काम उसी प्रवाह के अनुरूप होते रहने वाले हैं जिस प्रवाह में पुरखों ने काम किया और चल दिए। कर्मयोग में पूरी निष्ठा से रमने की आदत डालनी चाहिए। इसके बाद मस्त होकर सोचें कि जो हो रहा है, जितना हो रहा है, वह ठीक है। अपनी प्रतिभा और मेहनत पूरी लगाते हुए कार्यसिद्धि के प्रति ईमानदार रहो, फिर देखते जाओ, अपनी ओर से अच्छा प्रयास करो, हो तो ठीक, न हो तो ठीक।
कोई काम अपना मानकर मत करो, भगवान के ही काम हैं, भगवान अपने आप करवाएगा। लक्ष्य मत रखो, जितना आज के दिन के लिए सामने है, वही हमारा लक्ष्य है। कर्मयोग के सिवा संसार के दूसरे सारे कामों, ऎषणाओं और कामनाओं के लिए प्रयास जरूर करें लेकिन इन्हें भगवान का कार्य मानकर करने का आनंद कुछ अलग ही है। इसके लिए शुद्ध मन से प्रार्थना की जरूरत है।
अपने काम भगवान पर छोड़ दिये हैं, यह कहने से कुछ नहीं होता। हमारी स्थिति ऎसी है कि सामने आ रहे सांप को मारने के लिए पत्थर तो उछालते हैं मगर रस्सी से बंधा, जिसका दूसरा सिरा हमारे हाथ में होता है। जो काम लाख प्रयासों के बाद भी हमसे नहीं हो पा रहे हैं उन्हें भगवान के पाले में डाल कर निश्चिंत हो जाना चाहिए। मस्तिष्क से ही मत सौंपो, हृदय से भी उस काम को हमेशा-हमेशा के लिए निकाल दो, तभी ईश्वर काम करेगा, अन्यथा कहने से कुछ नहीं होगा। फिर जो काम भगवान को सौंप दिया, उसकी दुबारा कभी याद नहीं आनी चाहिए तभी वो काम पूर्ण होता है। भगवान को सौंप देने के बाद किसी भी काम को सोचना भी ईश्वर के प्रति अश्रद्धा और उसका अपमान ही है। मूर्खताओं, उद्विग्नताओं और अन्यमनस्कताओं से बाहर निकल कर आनंद भाव की प्राप्ति करने की आज जरूरत है।
भगवान सब कुछ देता है उसी में मस्त और मग्न रहो। जो मिल रहा है, जो दे रहा है, वह आम इंसान के लिए पर्याप्त है। हमेशा वर्तमान में जियो। जिनमें भगवान के प्रति अगाध आस्था और श्रद्धा होती है वे जिंदगी में हर क्षण बेपरवाह होते हैं। उनके सारे काम हमेशा भगवान करवाता है, निकलवाता है। कोई जरूरी थोड़े ही है कि सब काम हमारे ही हाथों हो जाएं। ऎसा होता तो हमें कोई काम करने की जरूरत ही नहीं पड़ती। हमारे पूर्वज वैज्ञानिक ही सारा काम कर जाते, पर वे भी नहीं कर पाए। राजा-महाराजा नहीं कर पाए। तभी तो राम और कृष्ण के साथ भगवान के 24 अवतार हुए। उस युग के लोग क्या कम समर्थ थे। फिर भी उनके बूते में नहीं थे वे काम। इसीलिए भगवान को लीला करने आना पड़ा। अपने आप के बहुत कुछ होने और जगत में प्रतिष्ठा पाने का अहंकार त्यागने से ही काम बनेगा। जिन लोगों के सामने हम अच्छा बनने की कोशिश करते हैं उनमें खूब सारे तो नालायक और व्यभिचारी लोग होते हैं, उन्हें इंसानियत से कोई मतलब नहीं होता। वे कौनसे अच्छे लोग हैं। कर्म के प्रति समर्पित रहना चाहिए लेकिन आसक्ति का परित्याग जरूरी है।
---डॉ. दीपक आचार्य---
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