आज हरियाली अमावास्या है। आज का दिन प्रकृति की जयगान का दिन है। पंचतत्वों से भरी-पूरी और जीवंत हरियाली से लक-दक प्रकृति अपने मौलिक स्वरूप के साथ पूर्ण यौवन पर है। सावन की फुहारों और हरियाली के साथ मदमस्त आबोहवा, परिवेशीय सौंदर्य और वह सब कुछ है जो प्राणी मात्र के तन-मन को ताजगी, आनंद और सुकून का अहसास कराता है।
पंचतत्वों की माया का ही कमाल है कि ये जहाँ भरपूर होते हैं वहाँ उल्लास और उत्साह की सरिताएँ बहती हैं और जहाँ कहीं थोड़ी सी कमी दिखने लगती है वहाँ दीर्घ शून्य पसर जाता है। मौसम की अनुकूलताओं और प्रतिकूलताओं के बावजूद फिर-फिर यौवन और ताजगी पा जाने वाली प्रकृति भयावह गर्मी और लू के लाख थपेड़ों के बावजूद अपने आपको बचाए रखने की जो जी तोड़ कोशिश करती है वह अपने आप में अपार सहनशीलता और सामथ्र्य का संदेश देती है। एक हम हैं जो थोड़ी सी विपरीत परिस्थिति सामने आते ही हार मान कर पीछे हो लेते हैं।
जाने-अनजाने प्रकृति हमें साल भर बहुत कुछ कहती रहती है। यह अलग बात है कि हम अपने गोरखधंधों और कानाफूसियों में ही इतने अस्त-व्यस्त और मगन रहते हैं कि हमारे कानों को शाश्वत सत्य और यथार्थ की ध्वनियों को सुनने की आदत खत्म हो चुकी है।
प्रकृति से बड़ा न कोई संरक्षक और पालक है, और न कोई गुरु। जो लोग प्रकृति का सामीप्य और प्रकृति को सोचने-समझने का हुनर पा जाते हैं वे निहाल हो जाते हैं। प्रकृति से तादात्म्य स्थापित हो जाने के बाद इंसान की दैहिक, दैविक और भौतिक शक्तियां अपने आप अनंत गुना हो जाती हैं और विराट पंच तत्वों के साथ ही प्रकृति का पूरा साथ बना रहता है।
प्रकृति अपने आप में वो केन्द्र है जो अपरिमित ऊर्जाओं, उत्साही जीवन और नित नूतनता भरी ताजगी का अखूट और अनुपम भण्डार है। जो इस केन्द्र के समीप रहता है वह भरपूर आनंद पाते हुए मद मस्त होकर जिंदगी जीता है और प्रकृति के सारे रहस्यों को आत्मसात करता हुआ अपने आप में विलक्षण व्यक्तित्व पा जाता है।
इंसान हो या कोई से प्राणी, प्रकृति का आनंद दुनिया के दूसरे सारे आनंदों से बढ़कर है। जो एक बार प्रकृति के संगीत को सुन लेने की कला पा जाता है उसके लिए दुनिया के सारे भौतिक सुख, चकाचौंध से भरी माया, धन-दौलत, जमीन-जायदाद, कुर्सियों और पदों की प्रतिष्ठा, पॉवर सब कुछ गौण अनुभव होता है।
प्रकृतिस्थ रहने वाले लोग हमेशा स्थितप्रज्ञ, सदा मस्त और महा आनंदी होते हैं। इन लोगाें को बाहरी माया या प्रलोभन अथवा दबावों से न झुकाया जा सकता है, न मोह में बाँधा जा सकता है। इन लोगों के लिए अपना जीवन वैश्विक दीवारों से भी बढ़कर होता है और वास्तव में यही वे लोग हुआ करते हैं जो संसार में जन्म लेने के बाद पूरी मस्ती के साथ जीते हैं। न उन्हें इंसुलिन लेना पड़ता है, न हार्ट सर्जरी कराने की जरूरत होती है, न गोलियों और इंजेक्शनों की आवश्यकता है, न नींद की गोलियों की। प्रकृति के समीप रहने वाले और प्रकृति को संरक्षक मानने वाले लोग मन-मस्तिष्क से हमेशा तरोताजा रहते हैं और उनका शरीर आरोग्य का खजाना होता है। इसका मूल कारण यही है कि इंसान को दैहिक, दैविक और भौतिक ताप तभी सताते हैं जब वह अपने आपको बहुरूपिया बनाकर आडम्बरों के जंजाल में घुसा लेता है।
जब तक हम जैसे हैं, वैसे ही रहते और दिखते- दिखाते हैं, तब तक प्रकृति हमारा संरक्षण और पालन-पोषण करती हैं। लेकिन जैसे ही हम अपने आपको प्रकृति से दूर करते हुए तुच्छ ऎषणाओं के लिए चालाकियों को अपनाकर पाखण्ड शुरू कर देते हैं, टुच्चे और गिरे हुए बिगडैल और टुकड़ैल लोगों को पूजना आरंभ कर देते हैं, झूठ-फरेब, मक्कारी और स्वार्थ के धंधों में लिप्त होने लगते हैं तब हम प्रकृति से अपने आप दूर होते चले जाते हैं।
जिस अनुपात में हमारा मनोमालिन्य और कपट बढ़ता जाता है उतने अनुपात में हम प्रकृति से दूर होते जाते हैं क्योंकि हमारा यह आचरण प्रकृति के मूल सिद्धान्तों का उल्लंघन माना जाता है। जो प्रकृति के निकट रहते हैं वे सारी चिंताओं, भ्रमों, आशंकाओं और भयों से दूर रहते हैं। जैसे-जैसे हम संसार को पाने की तरफ बढ़ते रहते हैं वैसे-वैसे सारे दुर्गुण और आशंकाएं हमें घेरने लगते हैंं। यही कारण है कि हम कितनी ही गगनचुम्बी आलीशन इमारतों, महलों, किलों और क्वार्टरों में रहते हों, कितने ही भोग-विलासी संसाधनों और उपकरणों का इस्तेमाल करते हुए अपने आपको आनंदित रखने की कोशिश करते हों, स्विस बैंक से लेकर देशी-विदेशी बैंकों के लॉकरों में अखूट धन भरा हो, स्वर्णाभूषणों से लक-दक हों, जमींदार हों या हर क्षण एसी में जिंदगी बसर करने वाले, बड़ी-बड़ी कुर्सियों में धंसे रहने वालें हों, सुरक्षा गार्डों से घिरे और नीली या लालबत्तियों के सहारे रौब झाड़ने वाले हों अथवा बड़े से बड़े धन्ना सेठ या बड़े कद वाले आदमी हों, हम सभी को अपने पास उपलब्ध सारे वैभव उस समय गौण होने लगते हैं जब हम प्रकृति के करीब होते हैं।
इतना सब कुछ हासिल करने के बाद भी हमें आत्मीय आनंद पाने के लिए प्रकृति के समीप जाने की विवशता बनी रहे और वहीं जाकर के आनंद का अनुभव हो, दिली सुकून का अहसास हो, तब यह समझने में कोई मुश्किल नहीं होनी चाहिए कि संसार का इतना सब कुछ वैभव पा लेने के बाद भी आनंद तो प्रकृति के करीब ही है और ऎसे में हमारे बहुरूपिया जीवन, स्वार्थों की यात्राओं, धूत्र्तता, मक्कारी और नालायकियों से हासिल पद-प्रतिष्ठा और वैभव का क्या मूल्य है।
हरियाली अमावास्या का दिन हमें यही संदेश देता है कि हम प्रकृति को भूले नहीं, उससे दूर न जाएं तथा मनुष्य के रूप में जो मौलिकता हमें भगवान ने दी है, उसे बनाए रखें अन्यथा इस जीवन का कोई मोल नहीं हैं। प्रकृति के उद्दीपनों और परिवर्तनों के मूल मर्म को समझें और जीवन में हर क्षण आनंदित, मस्त और ऊर्जावान रहने के लिए प्रकृतिस्थ रहें, जीवनचर्या में शुचिता लाएं और जिन कामों के लिए मनुष्य को पैदा किया हुआ है वे ही काम करें, दूसरे हीन कर्मों का त्याग करें।
प्रकृति हमें हर क्षण सिखाने की कोशिश करती है, मगर हम ही हैं जो सीखने को तैयार नहीं हैं। जो सीखने को तैयार नहीं हैं उनके लिए प्रकृति हमें पूरी तरह संसार के भरोसे छोड़ देती है और पंचमहाभूत उस दिन की प्रतीक्षा करते रहते हैं जिस दिन हम दुबारा इन पंचतत्वों में विलीन हो जाने वाले हैं।
---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
dr.deepakaacharya@gmail.com