हमारे देष में गरीब जनता को फायदा पहुंचाने के लिए बहुत सारी कल्याणकारी योजनाएं चल रही हैं। लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों को देखकर ऐसा लगता है कि षायद ही सरकार की किसी कल्याणकारी योजना का कार्यान्वयन ठीक से हो पा रहा हो। ग्रामीण क्षेत्र आज भी बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं। भारत सरकार की ओर से ग्रामीण क्षेत्रों में रोज़गार को सुनिष्चित करने के उद्देष्य से 2 फरवरी, 2006 में नरेगा की षुरूआत हुई। इस योजना के तहत घर के एक वयस्क सदस्य को एक वित्त वर्श में 100 दिनों का रोज़गार दिए जाने की गारंटी है। ग्रामीण क्षेत्रों में विकास के कामों को गति देने के साथ साथ लोगों को रोज़गार उपलब्ध कराने में नरेगा एक मील का पत्थर साबित हुआ है। इसके अंतर्गत राज्य सरकारों को प्रोत्साहित किया गया है कि वह रोज़गार प्रदान करने में कोताही न बरतें क्योंकि रोज़गार प्रदान करने के खर्च का 90 प्रतिषत हिस्सा केन्द्र वहन करेगा। ़इस सब के बावजूद जम्मू एवं कष्मीर जि़ले में इस योजना का कार्यान्वयन ठीक से नहीं हो पा रहा है। जम्मू एवं कष्मीर में ज़्यादातर और कुपवाड़ा जि़ले में खासतौर पर इस स्कीम का गलत इस्तेमाल किया जा रहा है। जिसकी वजह से कहीं कहीं पर यह स्कीम विकास के कामों को तो गति दे रही है, मगर भ्रश्टाचार के चलते बेरोज़गारी को दूर करने में षायद ही कोई रोल अदा कर रही है।
पुंछ के ‘‘दर्द हरे’’ गांव की रफीमा बेगम को नरेगा के तहत आज तक कोई पैसा नहीं मिला है लेकिन उनके जाब कार्ड पर कई बार पैसा निकाला गया है। रफीका बेगम एक विधवा हैं और उन्हें पैसे की सख्त ज़रूरत है लेकिन गांव के सरपंच, मोहल्ले के वार्ड मेंबर और ग्राम स्तरीय कार्यकर्ता को इस बात की जानकारी नहीं है कि उनके नाम पर पैसे कब, किसने और क्यों निकाले? हैरानी की बात यह है कि रफीका बेगम के इस जाब कार्ड पर साल 2009 से काम करने के दिन भी चढ़े हुए है लेकिन इस औरत को इस बात की जानकारी तक नहीं है कि क्यों काम के दिन चढ़ाए गए हैं? उससे ज़्यादा हैरानी की बात यह है ग्राम स्तरीय कार्यकर्ता को इस बात की भी जानकारी नहीं होती है कि काम कैसे कराया जाए ताकि ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को इसका फायदा हो सके। नरेगा योजना में इस बात को साफ तौर से उल्लिखित किया गया है कि ग्राम स्तरीय कार्यकर्ता को पंचायत के साथ मिलकर गांव में काम करना होगा और काम की निगरानी करनी होगी। इसके विपरीत यहां ग्राम स्तरीय कार्यकर्ता को न तो काम का आंकलन होता है और न ही वह काम ठीक से करवा पाता है। नरेगा के तहत काम करने वालों को 15 दिनों के अंदर पैसे मिलने चाहिए लेकिन यहां तो एक साल तक पैसे नहीं मिलते। काम करने वालों को यह स्कीम अब बहुत महंगी पड़ने लगी है। ‘‘दर्द हरे’’ गांव में नरेगा के तहत विभिन्न विकास कार्य हुए, मगर षायद ही ग्राम स्तरीय कार्यकर्ता किसी भी काम की निगरानी के लिए रोज़ गए हों और देखा हो कि काम ठीक से हो रहा है या नहीं। यहां सबसे बड़ी समस्या यह है कि यहां नरेगा का काम पूरी तरह से ठेकेदारी वाला काम बन गया है। इस योजना के तहत न तो किसी को यह बताया जाता है कि नरेगा के तहत कौन से काम किए जाते हैं और न ही काम करने का तरीका बताया जाता है।
यहां पर यह योजना इस तरह से चल रही है कि एक आदमी काम का मालिक बन जाता है और काम करने वाले मजदूर जाब कार्ड धारक भी नहीं होते हंै। सरकार की ओर से इस योजना के तहत 100 दिनों का रोज़गार देने का वादा किया गया है लेकिन काम को चंद दिनों में ही खत्म कर दिया जाता है, बाकी जाली कार्ड पर पैसा निकाला जाता है। इस योजना में इस बात का साफतौर से उल्लेख किया गया है कि एक ही घर के दो लोगों को जाब कार्ड नहीं मिल सकता मगर यहां दूसरे राज्य के लोगों का जाब कार्ड बना दिया जाता है। नरेगा यहां पूरी तरह से ठेकेदारी के काम में तब्दील हो चुका है क्योंकि एक ही आदमी इसे ठेकेदारी का काम समझ कर करवा रहा है। इस ओर ध्यान देने की ज़रूरत है क्योंकि केन्द्र सरकार की ओर से गरीब जनता के लिए आने वाला पैसा चंद लोगों की झोली में जा रहा है। इसकी वजह से ज़रूरत मंद लोग आज भी बेरोज़गारी का षिकार हैं।
इरफान अहमद लोन
(चरखा फीचर्स)