- देवासुर-संग्राम में शची ने बांधी थी इंद्र को रक्षाबंधन
- द्रौपदी ने अपनी साड़ी फाड़ कर श्रीकृष्ण की चोट पर बांधी, तो चीरहरण के वक्त उसकी रक्षा की
रक्षाबंधन शुभकामना और आशीर्वाद का प्रतीक है। शायद यही वजह है कि रक्षा कवच के नाम से जाना जाने वाला रक्षाबंधन कोई किसी को भी बांधता दिखाई पड़ जाता है। देवों व असुरों के युद्ध के दौरान जब देवताओं पर असुर भारी पड़ने लगे, तो महिलाओं का एक समूह इंद्र की पत्नी इंद्राणी अर्थात शची ने भी देवराज इंद्र को रक्षाबंधन बांध दिया। इससे देवताओं का हौसला बढ़ा और असुरों का नरसंहार कर विजय प्राप्त की। वामनावतार में माता लक्ष्मी ने राजा बलि की कलाई पर रक्षासूत्र बांध उन्हें अपना भाई बनाया था। उपहार स्वरूप राजा बलि ने भगवान विष्णु को द्वारपाल पद की वचनबद्धता से मुक्त कर दिया। माना जाता है कि रक्षा के लिए रक्षाबंधन बांधने की प्रथा शुरु हुई, जो आज भी कायम है। चित्तौड़ की राज माता कर्मवती ने मुगल बादशाह हुमायूं को राखी भेजकर अपना भाई बनाया था और वह भी संकट के वक्त बहन कर्मवती की रक्षा के लिए चितौड आ पहुंचा था। रक्षा बंधन हमें मानवीय मूल्यों की रक्षा का सीख देता है।
पौराणिक कथाओं के अनुसार वामनावतार में राजा बलि को दिए वचन के पालन के लिए भगवान विष्णु बलि के द्वारपाल रूप में पाताल लोक में रहने लगे। उनके वियोग में लक्ष्मी जी व्याकुल रहने लगीं। नारद जी के सुझाव पर लक्ष्मी जी ने राजा बलि की कलाई पर रक्षासूत्र बांध उन्हें अपना भाई बना लिया। उपहार स्वरूप राजा बलि ने भगवान विष्णु को द्वारपाल पद की वचनबद्धता से मुक्त कर दिया। जबकि जैन ग्रंथों के मुताबिक उजैनी में श्रीधर्म नाम राजा के यहां 4 मंत्री रहे, जिसमें बलि, वृहस्पति, प्रहलाद व नमुचि। शास्त्रार्थ में इन मंत्रियों हार पर श्रुतिसागर राजा पर तलवार से हमले का प्रयास करने पर राजा नेे इन्हें राज्य के बाहर निकाल दिया। चारों अपमानित होकर हस्तिनापुर राजा पद्म के दरबार पहुंचे। इसी दौरान हस्तिनापुर पहुंचे मुनि अंकपनाचार्य से बलि ने बदला लेने का ताना-बाना बुना। बलि ने राजा से सात दिन के लिए वरदान में राज्य मांग लिया। राज्य पाते ही बलि ने आचार्य के सिद्धिस्थल के चारों तरफ आग लगवा दी। धुंए व आंच से मुनियों की नींद हराम हो गई, लेकिन वह अपना धैर्य खोए बगैर ठान लिया कि जबतक इससे मुक्ति नहीं पा लेंगे जल-अन्न ग्रहण नहीं करेंगे। वह दिन श्रावण शुक्ल पूर्णिमा का दिन था। मुनियों का संकट देख भगवान विष्णु से रहा नहीं गया और वह वामन वेश में बलि से भिक्षा मांगने उसके दरबार पहुंच गए। उन्होंने बलि से तीन पग धरती मांगी, तो बलि ने कहा यह तो कुछ नहीं, हामी भर दी। फिर क्या भगवान विष्णु ने शरीर बड़ा कर एक पग सुमेरु पर्वत, दूसररा मानूसोत्तर पर्वत और अगला स्थान न होने से आकाश में पहुंच गया। इस रुप से सर्वत्र हाहाकार मच गया। बलि द्वारा अपने किए का माफी मांगे जाने भगवान वास्तविक रुप में आए और इस तरह मुनियों की रक्षा हुई और वह आपस में एक-दुसरे को रक्षा करने का बंधन बांधा। तभी से यह पर्व रक्षाबंधन के रुप में मनाया जानेे लगा।
इसके अलावा मान्यता यह भी है कि एक बार श्रीकृष्ण की कलाई पर चोट लग गई। द्रौपदी ने अपनी साड़ी फाड़ कर चोट लगी कलाई पर बांध दिया। भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें अपनी बहन मान दुरूशासन द्वारा चीरहरण के समय उसकी रक्षा की। भविष्य पुराण में कहा गया है कि एक बार देवों एवं असुरों में बारह वर्षों तक भयंकर युद्ध चलता रहा। देवता श्रीहीन हो चुके थे। देवराज इन्द्र अपने विजय की आशा त्याग कर अपनी नगरी अमरावती चले गए और देव गुरु बृहस्पति से अपनी रक्षा का उपाय पूछा। देव गुरु बृहस्पति ने उन्हें रक्षाबंधन का विधान बताया। इन्द्राणि यह सब सुन रही थीं। उन्होंने कहा- कल श्रावण पूर्णिमा है। मैं रक्षासूत्र तैयार कर आपकी कलाई पर बांधूगी। श्रावण पूर्णिमा को उन्होंने स्वस्तिवाचन आदि मंत्रों से अभिमंत्रित कर रक्षासूत्र तैयार कराया तथा देवराज इंद्र की कलाई पर रक्षासूत्र की पोटली बांधी, जिसके परिणामस्वरूप इन्द्र विजयी हुए। कहा जाता है कि ऋषि-मुनियों की पूर्णाहूति इसी दिन होती थी। वे राजाओं के हाथों में रक्षा सूत्र बांधते थे। इसीलिए ब्राह्मण आज भी लोगों को रक्षा सूत्र बांधते है। रक्षा बंधन से मनुष्य दुख, प्रेत बाधा आदि से मुक्त होकर अपने पुत्र पौत्रादि के साथ वर्ष भर सुखी रहता है।
प्राचीन काल में राज दरबारों में धूमधाम से इस त्योहार का आयोजन होता था, ब्राह्मण अपने आशीष स्वरूप रक्षा सूत्र बांधते और उपहारादि प्राप्त करते थे। कालक्रम में इसका स्वरूप सार्वजनिक हो गया। वर्तमान समय में यह मुख्य रूप से भाई -बहनों के त्योहार का रूप ले चुका है। इस दिन बहनें अपनी रक्षा की प्रतिबद्धता एवं भाइयों के दीर्घ जीवन की कामना स्वरूप उनकी कलाई पर रक्षा सूत्र बांधती हैं। यह त्योहार श्रावण पूर्णिमा को मनाया जाता है। इसमें परान्ह व्यापिनी तिथि ली जाती है। यदि ऐसा दो दिन हो अथवा दोनों दिन हो तो पूर्वा ली जाती है। यदि उस दिन भद्रा हो तो उसका त्याग किया जाता है। शास्त्र मत से भद्रा में रक्षा बंधन से राजा का एवं होलिका दहन से प्रजा का अनिष्ट संभव है।
पुरोहित राजा समाज कल्याण के लिए सरसों आदि लेकर रेशमी कपड़े की पोटली बनाकर राजा की कलाई में बांध करते थे स्वस्तिवाचन। हमारी भारतीय संस्कृति में पुरोहित का उच्च स्थान रहा है। उसे पुरोधा भी कहते हैं। यह वर्ग राष्ट्र, राजा एवं समाज के कल्यााण के लिए सदा समर्पित रहा और दान एवं सम्मान में प्राप्त जीवनोपयगी वस्तुओं से अपना निर्वाह करता रहा। शास्त्रानुसार काना, अपाहिज, निरूसंतान, अज्ञानी, अजितेंद्रिय, नाटा तथा रोगी ब्राह्मण को इस पद पर रखना निषिद्ध रहा। वेदों एवं वेदांगों का ज्ञाता, जय एवं होम में निपुण तथा आशीर्वाद देने वाला अर्थात अशुभ वाक्यों का प्रयोग करने वाला व्यक्ति ही पुरोहित होने लायक होता है। वेदवेदांग तत्वज्ञो जप-होम-परायणरू। आशीर्वाद वचोयुक्त एष राजपुरोहितरू।। पुरोहितवर्गसदाचारी, अध्ययनशील एवं अहंकार रहित होकर समाज को संमार्ग का निर्देश करता रहा, आध्यात्मिक बल प्रदान करता रहा। एक तरह से यह धार्मिक मंत्री रहा। चूंकि विद्या ही ब्राह्मणों की संपत्ति रही, इसलिए उनका जीवन यापन समाज राजा पर निर्भर रहा।
रक्षाबंधन उपाकर्म का अंग है। उपाकर्म का आशय है, संस्कार-पूर्वक वेदों का ग्रहण। वास्तव में आर्ष परंपरा के अनुसार यह वेद-पारायण या स्वाध्याय का शुभारंभ है। प्राचीन काल में यह अध्ययन सत्र श्रावण पूर्णिमा से माघ शुक्ल प्रतिपदा तक चलता था। आज वैदिक परंपरा शिथिल है, तो भी कुछ लोग नदी स्नान कर अरुंधती-सहित सप्तर्षियों की पूजा, सूर्योपास्थान, ऋषितर्पण एवं जनेऊ की पूजा करते हैं। इसी क्रम में पुरोहित राजा एवं समाज के कल्याण के लिए सरसों, केसर, चंदन, अक्षत, दूब (संभव होने पर सोना भी) लेकर ऊनी, सूती या रेशमी कपड़े की पोटली बनाकर विधिवत अभिमंत्रित कर राजा आदि की कलाई में बांधकर स्वस्तिवाचन करते थे। शास्त्रानुसार यह रक्षा विधान सभी लोगों के लिए उपयोगी था। कारण यह था कि इससे लोग एक साल तक सर्वदोष रहित और सुरक्षित माने जाते थे। कहा भी गया है- यरूश्रावणे विमलमासि विधान-विज्ञो, रक्षा-विधानमिदमाचरते मनुष्यरू। आस्ते सुखेन परमेण वर्षमेकं, पुत्र-प्रपौत्र सहितरू ससुहृज्जनरू स्यातः।।
आज हमारी बहनें सुरक्षित नहीं हे, उनकी रक्षा का संकल्प लेना होगा। तभी हमारेे संस्कृति व समाज की रक्षा हो सकेगी। रक्षा बंधन हमें आजादी का सीख देता है तोकि हम स्वयं को इस योग्य बना सके कि बहनों की रक्षा कर सकें। इस त्योहार के पीछे सिर्फ बहन ही नही समाज, देश, प्र्यावरण सभी की रक्षा का संदेश देता है। कहा यह भी जाता है कि रक्षाबंधन कर पुरोहित दक्षिणा एवं सम्मान पाता था, परंतु समय में बदलाव आया और पहले की तरह रक्षा विधान रहा और रक्षा का रूप-रंग ही रहे। पुरोहितों का स्थान बहनों ने ले लिया और राखी भी आर्टिफिशियल हो गई। परिवर्तन के पीछे भी कुछ कारण अवश्य रहता है। हमारे यहां कन्यादान भी महायज्ञ रहा और कन्या लक्ष्मी का, दामाद विष्णु का एवं नाती, विष्णु का अंश (ब्राह्मण के रूप में) मान्य रहे। कितने ब्राह्मणों के यहां आज भी नाती भांजे पुरोहित होते हैं। रक्षाबंधन के दिन नाती भांजा नहीं पाया हो और बहन ने ही अपने पुत्र का कार्य कर दिया हो और उस घर की परंपरा बन गई हो, फिर समाज ने इसे मान्यता दे दी हो। यही विकास शुरुआती कदम नई परंपरा का जनक हो सकता है।
व्रती प्रातरू स्नानादि से शुद्ध होकर रेशम या सूत के धागे में सरसों, सुवर्ण, केसर, चंदन, अक्षत एवं दूर्वा की पोटली तीन तार के मौली में बांध रंग बिरंगा रक्षा सूत्र तैयार करते हैं। फिर प्रांगण के किसी स्वच्छ स्थान पर कलशादि की स्थापना कर वेदोक्त मंत्रों से रक्षा सूत्र का पूजन, ऋषि पूजन आदि के पश्चात उस सुपूजित रक्षा सूत्र को गणपति एवं आह्वाहित देवताओं को चढ़ा निम्न मंत्र द्वारा अभिमंत्रित किया जाता है। ऊंॅ व्रतेन दीक्षामाप्नोति दीक्षयाऽऽप्नोति दक्षिणाः। दक्षिणा श्रद्धामाप्नोति श्रद्धया सत्यमाप्यते।। पूजनाादि के पश्चात ब्राह्मण यजमान या बहनें अपने भाई की कलाई पर निम्नमंत्र के साथ बांधती हैं। ऊंॅ यदाबंधन दाक्षायणा हिरण्यं शतानीकाय सुमनस्यमानारू। तन्म बध्नामि शतशारदायायुष्मांजरदष्टिर्यथास।। येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबलरू। तेन त्वामनुबध्नामि रक्षे मा चल मा चल।। अर्थात जैसे दानवों के राजा बलि बांधि गए थे, वैसे ही यह रक्षा मैं तुम्हारी कलाई में बांधती हूं। हे रक्षा! तू यहां से हटना, हटना। इसके बाद उन्हें कुंकुम, केसर, अक्षत आदि का निम्न मंत्र से तिलक लगा मिष्ठान्न खिलाया जाता है। ऊं स्वस्ति इन्द्रो, वृद्धश्रवारू स्वस्ति नरू पूषा विश्ववेदारू। स्वस्ति नस्ताक्ष्र्यो अरिष्टनेमिरू स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु।। इसके उपलक्ष्य में भाई द्वारा अपने बहन को अथवा यजमान द्वारा अपने पुरोहित को उपहार आदि दिए जाते हैं।
(सुरेश गांधी)