हिमाचल प्रदेश विधानसभा ने सोमवार को हिमाचल प्रदेश लोकायुक्त विधेयक 2012 वापस लेने से संबंधित एक प्रस्ताव को मंजूरी दे दी। इस विधेयक को पूर्व की भाजपा सरकार ने पारित किया था। मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह द्वारा पेश प्रस्ताव को, विपक्षी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की अनुपस्थिति में सदन ने बहुमत से पारित कर दिया। तत्कालीन मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार द्वारा छह अप्रैल, 2012 को पारित विधेयक को राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए भेजा गया था, लेकिन राष्ट्रपति की मंजूरी नहीं मिली। उस समय मुख्यमंत्री ने कहा था कि विधेयक अधिक मजबूत और संवैधानिक है।
धूमल ने कहा था कि विधेयक एक नए उपनियम को जोड़े जाने के बाद लोकायुक्त को उच्च न्यायालय के समान न्यायालय की अवमानना के अधिकार देता है। विधेयक के दायरे में सभी अधिकारी आते हैं, जिसमें मुख्यमंत्री से लेकर वार्ड पंच तक के अधिकारी शामिल होंगे। यहां तक कि पंचायती राज संस्थानों और शहरी स्थानीय निकायों के निर्वाचित सदस्यों के खिलाफ भी शिकायतें दर्ज कराई जा सकती हैं।
मजेदार बात यह कि विधानसभा ने इस वर्ष 21 फरवरी को हिमाचल प्रदेश लोकायुक्त अधिनियम 2014 को एक प्रवर समिति के पास भेज दिया। मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह ने कहा था कि विधेयक पर विचार के लिए उसे एक प्रवर समिति के पास भेजा जाना चाहिए। इस विधेयक को मौजूदा हिमाचल प्रदेश लोकायुक्त अधिनियम 1983 का स्थान लेना था। मुख्यमंत्री ने विधानसभा में कहा था, "जैसा कि कुछ सदस्यों ने कहा है, हम भी महसूस करते हैं कि विधेयक विधानसभा की प्रवर समिति के पास भेजा जाना चाहिए, ताकि कुछ और संशोधनों के साथ यह और अधिक सशक्त और प्रभावी हो सके।"
उन्होंने कहा कि सरकार चाहती है कि महत्वपूर्ण विधेयक पर गंभीर चर्चा होनी चाहिए। वीरभद्र ने कहा था, "विपक्षी भाजपा ने पूरे सत्र भर कार्यवाही का बहिष्कार किया। हम उन्हें यह कहने का मौका नहीं देना चाहते कि इतना महत्वपूर्ण विधेयक विधानसभा में उनकी अनुपस्थिति में पारित कर दिया गया।"बाद में संवाददाताओं से बातचीत में धूमल ने कहा था कि लोकायुक्त विधेयक कानून दोषपूर्ण है। उन्होंने कहा कि विधेयक अपराध प्रक्रिया संहिता की धारा 197(1) और भ्रष्टाचार निवारक अधिनियम की धारा 19 के खिलाफ है और संविधान की धारा 311 का उल्लंघन करता है। धूमल ने कहा, "विधेयक के प्रावधानों को न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है।"