प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस पर अपने उद्बोधन में कहा कि उनकी सरकार ने योजना आयोग को समाप्त करने और उसके स्थान पर एक नई संस्था बनाने का निर्णय ले लिया है, जो कि देश के संघीय ढांचे को और मजबूत करेगी। फिलवक्त यह संभव नहीं है कि मार्च 1950 में पं. जवाहरलाल नेहरू द्वारा स्थापित योजना आयोग के मौजूदा स्वरूप और नए प्रस्तावित संस्थान के बीच हम तुलना कर सकें, क्योंकि हमें अभी पता नहीं है कि उसकी प्रकृति और स्वरूप किस तरह का होगा। लेकिन अगर सरकार देश के नेहरूवादी-समाजवादी अतीत से खुद को पृथक करना चाहे तो भी वह उन महत्वपूर्ण कार्यों से खुद को अलग नहीं कर सकती, जिनका निष्पादन योजना आयोग द्वारा किया जाता है। इनमें शामिल है केंद्र सरकार के विभिन्न मंत्रालयों व विभागों की विभिन्न् नीतियों-कार्यक्रमों का स्वतंत्र मूल्यांकन और समन्वयन। कुछ हद तक ये कार्य प्रधानमंत्री कार्यालय, वित्त मंत्रालय या कैबिनेट सचिवालय द्वारा किए जा सकते हैं, लेकिन नौकरशाह और राजनेता हर चीज खुद नहीं कर सकते। उन्हें विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों की मदद की भी दरकार रहती है।
यह कहना ठीक नहीं होगा कि आज के उदारवादी और बाजार-केंद्रित आर्थिक माहौल में नियोजन, मूल्यांकन और समन्वयन एक ऐसी समाजवादी अर्थव्यवस्था के लक्षण हैं, जिसकी अब कोई प्रासंगिकता नहीं रह गई है। यहां तक कि मुक्त बाजार में यकीन रखने वाले विकसित देशों ने भी सरकार द्वारा प्रायोजित संस्थाओं द्वारा नियोजन, समन्वयन और नीतियों के स्वतंत्र मूल्यांकन की प्रणाली को तिलांजलि नहीं दी है। लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री ने कहा, 'हम जल्द ही योजना आयोग की जगह एक नई संस्था बनाएंगे। कभी-कभी घर की मरम्मत करवाना जरूरी हो जाता है। इसमें काफी पैसा भी लगता है, लेकिन इसके बावजूद हमें संतोष नहीं होता। तब हमें लगता है इससे तो बेहतर है एक नया घर ही बनवा लिया जाए।"
यह तो स्पष्ट है कि जब मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तब उन्हें यह पसंद नहीं आया होगा कि वे योजना भवन जाएं तो वहां आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया जैसे किसी 'टेक्नोक्रेट"द्वारा उन्हें बताया जाए कि केंद्रीय योजना सहयोग के रूप में उनके राज्य के लिए उन्हें इतनी-इतनी रकम दी जाएगी और इतना-इतना धन उन्हें केंद्र सरकार द्वारा प्रायोजित विभिन्न् योजनाओं के तहत आवंटित किया जाएगा। फिर भी, मोदी को कभी दिल्ली के सामने झोली फैलाने को मजबूर नहीं होना पड़ा था, जबकि गुजरात से कम भाग्यशाली अनेक राज्यों के मुख्यमंत्रियों को ऐसा ही करना पड़ता था।
लेकिन यह कहना गलत होगा कि आज के दौर में योजना आयोग अपनी प्रासंगिकता गंवा चुका है। अरुण शौरी ने एक बार योजना आयोग को राजनेताओं के चहेतों और अवांछित नौकरशाहों का 'पार्किंग लॉट"बताया था। वर्ष 1985 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने आयोग के सदस्यों को 'जोकरों का समूह"तक कह दिया था। तब योजना आयोग के उपाध्यक्ष कोई और नहीं, स्वयं मनमोहन सिंह थे। तब उन्हें अपने पद से इस्तीफा नहीं देने के लिए मनाए जाने की जरूरत पड़ गई थी। पर आयोग व उसके सदस्यों पर छींटाकशी करने वाले कभी भी कम नहीं रहे।
और ऐसा भी नहीं है कि योजना आयोग की भूमिका पर पहली बार सवाल उठाए गए हों। खुद आयोग की अधिकृत वेबसाइट पर लिखा हुआ है कि 'भारतीय अर्थव्यवस्था अब एक बेहद केंद्रीयकृत नियोजन प्रणाली से धीरे-धीरे निर्देशात्मक नियोजन की ओर बढ़ रही है, जिसमें योजना आयोग भविष्य के लिए दीर्घकालिक दृष्टिकोण विकसित करने और राष्ट्र की प्राथमिकताएं निर्धारित करने का काम करता है।"लेकिन सवाल उठता है कि क्या इस कार्य के लिए पृथक से एक संस्था बनाए जाने की जरूरत है?
निश्चित ही, सरकार के भीतर एक ऐसी स्वतंत्र संस्था की आवश्यकता है, जो न केवल विभिन्न् नीतियों और कार्यक्रमों का स्वतंत्र रूप से मूल्यांकन और उनकी आलोचना कर सके, बल्कि विभिन्न् मंत्रालयों व विभागों के बीच समन्वयक की भूमिका भी निभा सके। मिसाल के तौर पर, कृषि या ऊर्जा से जुड़ी नीतियों और कार्यक्रमों का निर्माण छह से अधिक मंत्रालयों द्वारा किया जाता है। निश्चित ही, यह सुनिश्चित किए जाने की जरूरत है कि सरकार के ये सभी विभाग अलग-थलग होकर काम न करें। प्रभावी प्रशासन के लिए नीतियों के निर्माण और योजनाओं के क्रियान्वयन में निरंतरता और समरूपता होनी चाहिए। स्वयं प्रधानमंत्री ने अपने स्वतंत्रता दिवस संबोधन में इस बात को स्वीकार किया कि सरकार के विभिन्न् अंग अमूमन आपस में ही उलझते रहते हैं।
हालांकि नियोजन राज्यमंत्री राव इंद्रजीत सिंह ने आधिकारिक तौर पर कहा था कि योजना आयोग को समाप्त करने की सरकार की कोई मंशा नहीं है। वे जल्द ही गलत साबित होने जा रहे हैं। योजना आयोग को समाप्त किया जा रहा है, यह धारणा तब अधिक बलवती हो गई थी, जब खुद आयोग के स्वतंत्र मूल्यांकन कार्यालय (आईईओ) ने इस आशय का सुझाव दिया था। नई सरकार बनने के तीन दिन के भीतर ही आईईओ के पहले महानिदेशक बने अजय छिब्बर ने एक रिपोर्ट प्रस्तुत की, जिसमें कहा गया था कि 'चूंकि योजना आयोग आधुनिक अर्थव्यवस्था की मांगों और राज्यों के सशक्तीकरण की जरूरतों के मुताबिक खुद में सुधार करने के प्रयास नहीं कर सका है, इसलिए यह प्रस्ताव किया जाता है कि उसे समाप्त कर दिया जाए।"छिब्बर का कहना था कि राज्य सरकारें केंद्र सरकार द्वारा उन्हें मुहैया कराए जाने वाली राशि के व्यय में अधिक लचीला रुख चाहती हैं। साथ ही उन्होंने यह भी सुझाया कि क्यों न योजना आयोग को किसी थिंक टैंक में तब्दील कर दिया जाए।
अतीत में योजना आयोग का महत्व अमूमन इस पर निर्भर रहा है कि उसकी अगुआई करने वाले व्यक्ति का सरकार में क्या प्रभाव है। यूपीए सरकार के राज में आयोग का इसलिए दबदबा था, क्योंकि उसके उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के करीबी माने जाते थे। 1950 के दशक के अंत में जब पं. नेहरू ने अपने विश्वस्त पीसी महालनोबिस को योजना आयोग का सदस्य बनाया तो उनके कुछ कैबिनेट सहयोगी कथित रूप से इस 'सुपर फाइनेंस मिनिस्टर"की नियुक्ति से चिढ़ गए थे।
सरकार को एक ऐसी संस्था की जरूरत है, जो राष्ट्रीय विकास परिषद की सहायता कर सके। इस परिषद के अध्यक्ष प्रधानमंत्री होते हैं और इसमें कैबिनेट मंत्री और सभी राज्यों व केंद्रशासित प्रदेशों के मुख्यमंत्री शामिल होते हैं। यदि किसी अंतरराज्यीय परिषद को पुनर्जीवित किया जाता है, जैसा कि वीपी सिंह ने करने की कोशिश की थी, तो भी इस तरह की किसी संस्था की जरूरत होगी। यदि योजना आयोग को समाप्त कर दिया जाता है और फिलहाल योजना भवन में काम करने वाले सैकड़ों सरकारी कर्मचारियों के लिए कोई नया काम ढूंढ़ लिया जाता है, तो भी ये लोग अब तक जो काम कर रहे थे, उसे अब सरकार के किसी अन्य विभाग को करना होगा। योजना आयोग की मृत्यु हो चुकी है। योजना आयोग के नए अवतार की जय हो!
दीपक कुमार
संपर्क : 09555403291
लेखक अमर उजाला से जुड़े हैं।