हम सभी लोग किसी न किसी भगवान में आस्था रखते हैं और रोजाना उनका कम से कम एकाध बार तो स्मरण कर ही लिया करते हैं। भगवान को पाने और मोक्ष प्राप्ति की कामना से लेकर छोटी-मोटी मनोकामना, स्वार्थ और ऎषणाओं की पूर्ति की गरज से अथवा किसी संकट या भय, पीड़ा और दुःखों के समय, औरों से सताये जाने पर या कि अनिष्ट की आशंका और भय से मुक्ति पाने की वजह से हम सारे के सारे लोग ईश्वर को याद करते हैं।
सुखों की अपेक्षा दुःख के समय हम ज्यादा याद करते हैं और उस समय ईश्वर स्मरण की तीव्रता और घनत्व भी अधिक होता है कि क्योंकि हममें से कोई ऎसा नहीं है जो दुःखों को बनाए रखने का इच्छुक हो। हर कोई चाहता है कि दुःख जितने जल्दी हों हमसे दूर हो जाएं। इसलिए दुःखों व पीड़ाओं के समय ईश्वर को याद करने की आवृत्ति और वेग दोनों में बढ़ोतरी हो जाती है।
हम सभी लोग किसी न किसी स्वार्थ-परमार्थ से ही भक्ति, साधना और उपासना, भजन-कीर्तन, सत्संग आदि करते हैं। कुछ बिरले लोगों को छोड़ दिया जाए तो अधिकांश लोग किसी न किसी कामना या भय से ही भगवान की पूजा-उपासना करते हैं और इन लोगों का काम हो जाने के बाद फिर सब कुछ छोड़ दिया करते हैं।
हर इंसान किसी न किसी देवी या देवता की उपासना करता ही है। इस उपासना में यज्ञ-यागादि, पूजा पाठ, साधना, अनुष्ठान से लेकर भगवान को रिझाने के तमाम प्रचलित आयामों का सहारा लेता है। हम सभी लोग अपने आपको भक्त मानने और मनवाने में अत्यन्त गौरव का अनुभव करते हैं और इस पहचान को हमेशा बनाए रखने के लिए हरसंभव प्रयासों में जुटे रहते हैं।
भक्त के रूप में हमारी प्रतिष्ठा का लाभ हमें समाज में प्राप्त होता है वहीं भक्ति का चौला हमारे कई अपराधों, पापकर्मों और दुष्प्रवृत्तियों पर परदा डाले रखने का भी काम करते हुए हमें सम्मानजनक रूप से संरक्षित भी रखता है। आजकल धर्म और भक्ति का आवरण इतना अधिक शक्तिशाली हथियार हो गया है कि इसका इस्तेमाल कर कोई कुछ भी कर सकता है। सभी प्रकार के भक्तों की अपार भीड़ और भक्ति तथा धर्म के रोजाना होने वाले तमाम आयोजनों के बीच असली भक्तों का टोटा हो गया है। नकली, पाखण्डी और आडम्बरी भक्तों और धर्म के नाम पर लोगों को गुमराह करने वाले ध्यानयोगियों, बाबों, महंतों और सिद्धों की कोई कमी नहीं है जो अपने नाम पर छोटे-मोटे कियोस्क से लेकर बड़ी-बड़ी दुकानें चला रहे हैं और धर्म को धंधा बनाकर खूब कमा-खा रहे हैं, जमा कर रहे हैं। पर हकीकत में इनका न धर्म से कोई रिश्ता है, न भक्ति से। हर किस्म के भक्त के जीवन को गहराई से देखें तो साफ पता चलेगा कि भक्ति के उसके दूसरे रोजमर्रा कामों की ही तरह एक अभिनय है जिसे वह रोज जीने की कोशिश करता है और भगवान को भ्रमित करने के जतन करता है।
भक्त वही है जिसमें उपास्यदेव के लक्षण आएं। कोई श्रीराम का भक्त है, दिन-रात राम-राम करता रहता है और व्यवहार में वे सारे कर्म करता है जो निन्दित एवं त्याज्य हैं, तो ऎसी भक्ति किस काम की। जो व्यभिचार में रमा रहे, असुरों के साथ खाता-पीता और बैठता रहे, राक्षसों जैसा व्यवहार करे, अतिक्रमण करता रहे, मुनाफाखोरी जिसके जीवन का ध्येय हो, परायी जमीन-जायदाद हड़पता रहे, स्ति्रयों के प्रति दुर्भावना रखे, कामुक, भ्रष्ट, रिश्वतखोर और भयप्रदाता हो, जिसको देखकर लोगों में घृणा उत्पन्न हो जाए, जिसके करम पाप भरे हों, पूरा जीवन भोग-विलासी और स्वच्छन्द हो, जिनके जीवन में मर्यादाओं का कोई स्थान ही न हो, जो राक्षसी वृत्तियों भरे लोगों को सहयोग व प्रोत्साहन देते रहें, ऎसे भक्त किस काम के। ऎसे लोगों को अपने आपको मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम का भक्त कहने या होने का कोई अधिकार नहीं है।
इसी प्रकार जो लोग समाज को दुःख देने वालों, अत्याचार ढाने वालों और शांति भंग करने वाले असामाजिक तत्वों को सहयोग प्रदान करें, उन्हें प्रश्रय दें, लंपट हों और समाज में बुराइयों का प्रसार करने वाले हों, इन लोगों को भगवान श्रीकृष्ण का भक्त होने का कोई अधिकार नहीं है। इसी प्रकार वे लोग भी दुर्गा के भक्त नहीं हो सकते जो शुंभ-निशुंभ, चण्ड-मुण्ड और महिषासुरों को पालते हैं, नालायकों और कलियुगी असुरों का जयगान करते हैं, उन्हें संरक्षण और मदद देते हैं।
भक्ति का यही अर्थ नहीं है कि जिसकी उपासना करें उसका नाम तोते या टेपरिकार्डर की तरह जपते रहें। भक्ति का असली अर्थ यह है कि जिस देवता की हम उपासना करते हैं उसके गुण विशेषों को हम अपने जीवन में उतारें, उन देवी-देवताओं द्वारा किए गए कार्यों को आगे बढ़ाएं तथा समाज और क्षेत्र, देश के लिए आगे आएं, असुरों का संहार करें, समाज को सबल एवं समृद्ध बनाएं और इस प्रकार का माहौल स्थापित करें कि सभी लोग निर्भयतापूर्वक शांति से रह सकें, देश निष्कण्टक हो जाए और असुरों तथा विधर्मियों का खात्मा होता रहे ताकि मानवजाति अपने अस्तित्व को बरकरार रखते हुए आगे बढ़ सके।
हम जिस देवी या देवता की उपासना करें उनके गुणों और विलक्षणताओं को हमारे जीवन में नहीं उतार पाएं, उनके कार्यों में रुचि न लें, तो हमारी सारी पूजा-उपासना बेकार है और इसका कोई अर्थ नहीं चाहे बरसों तक यों ही माईक लगाकर गलाफाड़ मंत्रों, श्लोकाें का उच्चारण करते रहो, लाखों-करोड़ों मंत्रों के जप करते रहो या अपने आपको परम भक्त मानने और मनवाने का भ्रम बनाए रखो।
ईश्वर की आराधना तभी सफल हो सकती है जबकि हम ईश्वरीय कार्यो में अपने आपको समर्पित करें। ईश्वरीय कार्य संपादन के दो तरीके हैं जो समानान्तर चलते रहते हैं। एक तो असुरों का संहार, दूसरे रचनात्मक कार्यों का विस्तार। दोनों साथ-साथ चलने पर ही ईश्वर प्रसन्न हो सकता है।
दुष्टों, नालायकों, हरामखोरों, अमानवीय लोगों, चोर-डकैतों, बेईमानों, रिश्वत खाने वालों, कमीनों और निस्तेज, निर्वीर्य, असामाजिक और आसुरी वृत्तियों वाले लोगों के साथ बने रहकर या इनका मददगार बने रहकर की जाने वाली पूजा-उपासना ईश्वर और अपने आप के साथ खुला धोखा है। इसके लिए न हमारी आत्मा हमें कभी माफ कर पाएगी, न परमात्मा। समाज और देश के लिए घातक तत्वों का सफाया करें, यही आज की सबसे बड़ी भक्ति है क्योंकि हर भक्ति की सफलता के लिए शुद्ध भावभूमि और पवित्र पर्यावरण जरूरी है। आज जितनी रचनात्मकता की आवश्यकता है उससे कहीं अधिक साफ-सफाई, शुद्धता और पवित्रता की जरूरत है और यह कार्य करने कोई आसमान से नहीं आने वाला, जो कुछ करना है, हमें ही।
---डॉ. दीपक आचार्य---
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