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सर्द रात में गर्माहट का ज्वार उमड़ा दिया काव्य रचनाओं ने

  • कवियों और शायरों की ताजातरीन सृजन धाराओं ने श्रोताओं को खूब आनंदित किया

बांसवाड़ा, 19 जनवरी/लालीवाव मठ में महंतश्री नारायणदास एकादश स्मृति महोत्सव के अन्तर्गत शनिवार रात मठ एवं विधुजा सृजन संस्था के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित काव्य निशा खूब जमी और रचनाकारों की विभिन्न रसों से भरी रचनाओं ने सर्द रात में भी आधी रात तक गर्माहट घोले रखी। काव्य निशा की अध्यक्षता लालीवाव मठ के महंत श्री हरिओमशरणदास महाराज ने की जबकि साहित्य चिंतक डॉ. वीरबाला भावसार मुख्य अतिथि एवं ग़ज़ल-गीतकार हरीश आचार्य विशिष्ट अतिथि थे। काव्य निशा का संचालन डॉ. दीपक द्विवेदी ने किया तथा आभार प्रदर्शन विधुजा सृजन संस्था की अध्यक्ष कृष्णा भावसार ने किया।
       
काव्य निशा में प्रमुख कवियों, कवयित्रियों एवं शायरों ने अपनी बेहतरीन काव्य रचनाओं से समा बांध दिया।  गीतकार हरीश आचार्य की हिन्दी ग़ज़ल ‘‘नत मस्तक हो जाए नर तो, नारायण उद्धार करे, है अभिलाषा मात्र यही कि तेरी कृपा का पात्र बनूँ’’ ने गुरु के प्रति श्रद्धा की चरमावस्था को अभिव्यक्ति दी। सूफी रचनाओं के लिए मशहूर शायर सिराज नूर चिश्ती की नज़्म ‘‘ ज़मीने हिन्द को दुनिया में सबसे मोहतरम कहना, अगर कहना पड़े दिल से तो वन्दे मातरम कहना..’’ ने राष्ट्रीय चिंतन का पैगाम गुंजा दिया। शायर घनश्याम नूर की ग़ज़ल ‘‘ किसमें कितना ज़हर भरा है, मुझको सब मालूम है’’  तथा लोक कवि भागवत कुंदन की रचना ‘ हवाओं की सतह पर सलाम भेज रहा हूँ’ तथा बृजमोहन तूफान की देश की मौजूदा स्थितियों को प्रकटाती रचना ‘‘देश का नेतृत्व जब तक साधु नहीं करेगा, तब तक अनाचार भ्रष्टाचार कायम रहेगा’’ खूब सराही गई।
       
मशहूर साहित्य चिंतक एवं चित्रकार डॉ. वीरबाला भावसार की रचना ‘ जिसको कहता तू खुदा वह कहता है राम, सुनता तो बस एक है जिसके सब हैं नाम’’ और सिकंदर मामू की रचना ‘ अपने वतन से जो भी मोहब्बत कर न सका, वो शख्स ज़िंदग़ी की भी इज्जत न कर सका’’ ने वतन और खुदा के प्रति बंदगी के भावों को साकार किया।
       
काव्य निशा में पूर्णाशंकर आचार्य ने मातृभूमि का महिमागान किया। रउफ अली की रचना ‘‘ तू अपनी जिन्दगी को कुछ ऎसा मोड़ दे, नेकी न कर सकें तो गुनाहों को छोड़ दे...’’ ने पाक-साफ जिन्दगी की अहमियत बखानी। कवयित्री श्रीमती प्रेम शर्मा की कृष्णभक्ति रस से ओत-प्रोत रचना ‘‘आ जाओ मेरे साँवरे, कब आ रहे हो तुम, अपनी छवि से मुझको क्यों लुभा रहे हो तुम’’ ने कान्हा भक्ति की याद दिला दी। कृष्णा भावसार की रचना ‘‘झिलमिल तारों संग धरा की रात चमके’’ और भारती भावसार की रचना ‘‘शब्दों के धागों से ’’ ने जीवन और परिवेश के भीतर समाहित रहस्यों का उद्घाटन किया।
       
क्रांतिकारी विचारों के ओजस्वी कवि अशोक मदहोश की रचना ‘‘ नीयत तेरी साफ तो तेरे घर में ही मथुरा-काशी है’’  ने पाखण्डों से परदा हटाया वहीं नरेन्द्र नंदन की रचना ‘गांव की पगडण्डियों में जान होनी चाहिए’’ ने ग्राम्य विकास को प्रधानता दी। उत्सव जैन (नौगामा) की कविता ने सुदामा और कृष्ण की मैत्री की याद तरोताजा करा दी। मोहनदास वैष्णव की रचना ‘‘ कथनी और करनी मेें अंतर कम कर दे इंसान, स्वर्ग धरा पर ले आने को तत्पर है भगवान’’ ने इंसानियत का संदेश दिया। काव्य निशा में सैयद साबिर मोहम्मद ने ‘‘मैं कविता क्या लिखूं’’ तथा पंकज देवड़ा की कविता ‘‘आओ कल्पनाओं के विचारों में खो जाएं हम’’ तथा डॉ. दीपक द्विवेदी और वहीद खान(उदयपुर) की रचनाओं ने ख़ासा रंग जमाया।
       
इस अवसर पर अपने विचार व्यक्त करते हुए मनीषी चिंतक डॉ. प्रभु शर्मा  ने सृजन के मौलिक चिंतन को रेखांकित करते हुए वाणी के प्रभावों पर प्रकाश डाला और कहा कि कभी-कभी मौन भी अभिव्यक्ति का पर्याय हो उठता है।

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