पूर्व राष्ट्रपति डाॅ. राधाकृष्णन के जन्म दिवस के अवसर पर देश मे पहली बार प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी को यह ध्यान आया कि वह शिक्षंण संस्थाओं के माध्यम से विद्यार्थी वर्ग को उद्बोधन देते हुये कुछ दिशा निर्देश दें। कहने को बात छोटी है परन्तु यह छोटी सी बात भारत की स्वतन्त्रता के पश्चात किसी प्रधानमन्त्री की समझ मे नही आई कि शिक्षा, शिक्षंण और छात्रों के लिये भी वह कुछ सारगर्भित कहें। नरेन्द्र मोदी जी के इस कदम से यह सन्देश अवश्य मिलता है कि शिक्षंा पद्धति एवं शिक्षंण व्यवस्था मे सुधार हेतु वह अवश्य कुछ करेंगे। राष्ट्र के निर्माण की नींव शिक्षा पद्धति पर आधारित रहती है। विद्यार्थी को जैसी शिक्षा मिलती है, वैसा ही राष्ट्र का निर्माण होता है। विद्यार्थी को हम कौन सी शिक्षा एवं किस माध्यम से दे रहे हैं, इस विषय पर अनेकों अनेक विद्वानों ने समय-काल और परिस्थितियों के परिवेश में अपने अपने मत व्यक्त किए हैं। लेकिन बिडम्बना तो यह है कि आज भी शिक्षा पद्धति मे सुधार की आवश्यकता है और भारत की स्वतंत्रता के 67 वर्षों के पश्चात भी शिक्षा पद्धति में परिवर्तन व संशोधन की चर्चायें अब भी होती रहती हैं। आज भी यह समस्या है कि युवा पीढ़ी के समक्ष एक सुनिश्चित व परिपूर्ण शिक्षा की योजनाओं को हम परोस नही पा रहे हैं। बिडम्बना यह भी है कि शिक्षा देने में और शिक्षा लेेने में व्यवसायिक दृष्टिकोंण निर्मित हो चुका है। शिक्षा के विषयों मे ज्ञान एवं चरित्र निर्माण का महत्व न होकर व्यवसायिक शिक्षा का प्रचलन हो चला है। यहीं से पाश्चात्य शैली और उपभोक्तावाद का उद्भव हुआ है। जबकि भारतीय संस्कृति में आदिकाल से ज्ञानार्जन पर महत्व दिया जाता रहा है। विश्व के महान दार्शनिक जे. कृष्णमूर्ति ने कहा है ‘‘क्या आप विद्यार्थी को यह सिखा रहे हैं, यह स्पष्ट रूप से अनुभव करते हुए कि सभी पेशाओं में शिक्षक का पेशा और कार्य महानतम है ? ये मात्र शब्द नहीं हैं वल्कि एक शाश्वत वास्तविकता है, जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। अगर आप इसकी सत्यता को महसूस नहीं करते तब आपको दूसरा पेशा अपना लेना चाहिये।’’ (शिक्षा केन्द्रों के नाम पत्र पृष्ठ क्र.19) प्रसंग से जुड़ते हुये कहना चाहूंगा कि शिक्षक, शिक्षण व शिष्य मे जब तक आपसी तालमेल और आस्थावान सम्बन्ध निर्मित नही होगे तब तक शिक्षा ग्रहण करने का कार्य पूर्णता को प्राप्त नही होगा।
शिक्षा का तात्पर्य पाठ््क्रम के अनुसार कुछ किताबी ज्ञान होने तक ही सीमित नही है, बल्कि समझ-बूझ एवं व्यक्ति के अन्दर निर्णय लेने की क्षमता को विकसित करना हैं। शिक्षा के विषय पर स्वामी विवेकानंद जी ने कहा है कि शिष्य को गुरू के सम्पर्क मे रहने से ही सच्ची शिक्षा प्राप्त होती है। उन्होने 150 वर्ष पूर्व ही भारतीय विश्वविद्यालयों की कार्यशैली का अनुमान लगा लिया था, उनका कहना है कि भारत के विश्वविद्यालय छात्रों की परीक्षा लेने की संस्था के रूप मे स्थापित हो रहे हैं। इस परम्परा के चलते हम एक मौलिक व्यक्ति को पैदा नही कर पा रहे है। स्वामी विवेकानंद ने कहा है कि वास्तविक आचार्य वे ही है जो अपने छात्र की मानसिकता मे उतरे हों, उन्होने अपने गुरू श्री रामकृष्ण परमहंस का दृष्टांत देते हुये कहा है कि जब पुष्प खिलता है तो मधुमक्खियां स्वंय ही उस पर मढ़राने लगतीं है और इसी तरह जब शिक्षक का चरित्र-रूपी पुष्प पूर्ण रूप से खिलने लगेगा तो छात्र स्वतः ही उसके पास शिक्षा लेने आ जायेगें। स्वामी विवेकानंद जी के इस विचार से यह सदंेंश मिलता है कि छात्र के चरित्र के साथ-साथ उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण शिक्षक का चरित्र है। हमे यह देखना है कि क्या शिक्षक के आचरण मे शिक्षंण की आत्मा और गुरू-तत्व का समावेश है या नही ? यदि शिक्षक का आचरण और चरित्र ही दूषित होगा तो हम यह अपेक्षा छात्र से कैसे कर सकते है कि उसके अन्दर शिक्षक के प्रति आस्था, विश्वास और सम्मान हो। बर्तमान समय मे भी हम देख रहे है कि विश्वविद्यालय नई-नई फेकल्टी का निर्माण करके उनके पाठ््क्रमों की घोषणा के बाद परीक्षा संचालन के कार्य तक सीमित रह गयें हैं। शिक्षंण और शिक्षा के व्यवहारिक एवं वास्तविक पवित्र कार्य विश्वविद्यालयों मे द्वितीयक हो गये है। जबकि भारतीय संस्कृति के अनुसार विश्वविद्यालय की परिकल्पना हम एक गुरू के रूप मे और विश्वविद्यालय के आधीन अध्यनरत छात्र की परिकल्पना शिष्य के रूप मे कर सकते हैं। भारतीय संस्कृति मे गुरू-शिष्य परम्परा की प्रधानता हैं और सच तो यह है कि ज्ञान की प्राप्ति तभी होती है जब गुरू और शिष्य मे पवित्र सम्बन्ध हों।
पाठ्यक्रम के अनुसार पढ़ाई कराने के साथ-साथ शिक्षण संस्थाओं का प्राथमिक कार्य विद्यार्थियों में संस्कारों का निर्माण कराने का होना चाहिये। देश की युवा पीढ़ी और राष्ट्रनिर्माण, शिक्षा के अच्छे स्तर पर ही निर्भर है। समाज मे प्रत्येक स्तर पर नैतिक मूल्यों का हृास होने का कारण व्यक्ति के अन्दर आध्यात्मिकता का हृास होना है। जब कि इसके विपरीत राजनीति के विकृत और ओछेपन के स्वरूप के कारण धर्म के प्रति घृणां और धार्मिक पुस्तकों से दूरी बनाये रखने का जहर उगला जाता है। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश श्री ए. आर. दबे ने ठीक ही तो कहा है कि विद्यार्थी को कक्षा एक से ही गीता पढ़ाई जानी चाहिये। गीता का अध्यन किये बिना तथा-कथित आधुनिकतावादियों ने जस्टिस ए.आर. दबे का बिरोध करना प्रारम्भ कर दिया। भारत की शिक्षा पिित मे भले ही वैदिक पाठ्क्रम का बिरोध होता हो लेकिन सन् 1856 मे स्थापित अमेरिका की स्वायत्त केथोलिक सेटन हाल यूनिवर्सिटी मे सभी छात्रों के लिये गीता पढ़ना अनिवार्य है। शिक्षा पद्धति मे मूलभूत परिवर्तन की आवश्यकता हैं। शिक्षित होने से तात्पर्य सिर्फ इतना भर नही हैं कि कुछ चुनिंदा किताबों का हमने अध्ययन कर लिया अथवा अपनी आय अर्जित करने का साधन प्राप्त कर लिया। वस्तुतः शिक्षित होना तभी माना जा सकता है जब कि विद्यार्थी का बहुमुखी विकास हो जो समग्र मानव के निर्माण से जुड़ा हुआ हो। जागृत विवेक का स्वरूप व्यक्ति के अन्दर जब निर्मित हो जाये, तभी उस व्यक्ति को शिक्षित होना कहा जा सकता हैं। शिक्षित होने के कुछ प्रमाणपत्र प्राप्त कर लेने पर भी यदि विवेक-शून्यता रही तो इससे बेहतर अशिक्षित बना रहना ही अच्छा हैं। सामान्यतया यह देखने मे आ रहा हैं कि शिक्षंण संस्थानों मे विद्यार्थी और शिक्षक के मध्य दूरियां बनी रहती हैं जिसके कारण शिक्षक और शिक्षा का अप्रत्यक्ष भय विद्यार्थी के मन-मस्तिक मे बना रहता है। यह प्रक्रिया ठीक नही हैं। हम देखते हैं कि शिक्षक अपने ज्ञान और विद्वत्ता की छाप विद्यार्थी पर थोपने का प्रयास करता है और इसी कारण वह स्वंय को प्रत्येक स्तर पर उच्च समझता हैं। लेकिन इसका परिणाम यह होता है कि विद्यार्थी स्वंय को हीन समझने लगता हैं, परिणामतः उन दोनों के मध्य दूरियां बन जाती हैं। विद्यार्थी अपने आप को छोटा और निरीह समझने लगता हैं, जिस कारण से या तो वह जीवन भर चाटुकार बना रहता है या फिर अक्रामक। इस कारण विद्यार्थी के मन मे शिक्षक और शिक्षा के प्रति भय का कोई स्थान नही होना चाहिये। विद्यार्थी को जब शिक्षक पढ़ाता है तो इसके साथ-साथ शिक्षक भी पढ़ता हैं और अपने व्यख्यान के साथ-साथ शिक्षा देने के स्तर मे वृ़िद्ध करता रहता हैं। क्या हम यह नही कह सकते की एक विद्यार्थी के माध्यम से शिक्षक ने भी कुछ सीखा हैं ? दोनो ही ओर कुछ सीखने और जानने की प्रक्रिया चलती रहती हैं और शिक्षक एवं विद्यार्थी, दोनो मे सहज रूप से ज्ञान का प्रस्फुटन होता हैं तथा यह प्रस्फुटन भी अत्यन्त आवश्यक हैं अन्यथा शिक्षा का उद्देश्य सिर्फ किसी रोजगार तक सीमित रह जायेगा। हम यह देख रहे है कि शिक्षा का उद्देश्य सिर्फ धनार्जन्य तक सीमित हो जाता हैं और इस कारण हमारे दैनिक व्यवहारिक जीवन मे असन्तुलन आ जाता हैं। अतः हमे विद्यार्थी के समग्र विकास और विवेक के जागरण की ओर ध्यान देते हुये शिक्षा के उद्देश्य को पूर्ण करना हैं
वस्तुतः व्यक्ति के समग्र विकास के लिए मूल तत्व है- ‘‘ज्ञान प्राप्त करने की उत्कंठा’’ अर्थात कुछ जानने की लालसा। जब मन में कुछ जानने की उत्कंठा होगी, तभी तो अपने अंदर प्रश्नों का निर्माण होगा। परन्तु इसके विपरीत यदि कुछ जानने की इच्छा ही नहीं है तो ज्ञान मिल ही नहीं सकता है। हम सामान्यतया अपने व्यवहारिक जीवन में देखते हैं कि सुबह उठते ही चाय की चुस्की के साथ अखबार पढ़ने की लालसा रहती है। प्रश्न यह है कि क्यों पढ़ रहे हैं अखबार ? सीधा सा जबाब यही है कि हमारे स्थानीय क्षेत्र, प्रदेश व देश में व्यतीत हुए दिन को क्या-क्या कार्य व घटनायें घटित हुई हैं, उनकी जानकारी हांसिल कर ली जाये। जन्म होते ही शिशु के चेहरे पर एक भाव उत्सुकता का यह रहता है कि ‘‘मैं कहां हूं ?’’ वह बोल नहीं पाता लेकिन प्रश्नवाचक नजरों से व्यक्त करता है कि ‘‘यह सब क्या है, आप कौन हैं, मैं कौन हूं ?’’ प्रश्नों की अनकही बौछार यहीं से प्रारम्भ होती है। अर्थात ज्ञान के लिये नैसर्गिक रूप से पहले प्रश्न उत्पन्न होते हैं, और उसके बाद फिर उत्तर का निर्माण होता है। किसी चीज के बारे में जानना एक नैसर्गिक गुंण है। यदि प्रश्नों के उत्पन्न होने वाले इस नैसर्गिक गुंण का किसी व्यक्ति में अभाव है तो निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि उस व्यक्ति का समग्र विकास नहीं हो पा रहा है। क्योंकि उसमें कुछ जानने की लालसा ही नहीं है। ऐसी स्थिति में शिक्षण संस्थाओं का दायित्व और अधिक बड़़ जाता है।
हमें आज एक ऐसी शिक्षा पद्धति की आवश्यकता है, जिसके माध्यम से विद्यार्थियों में प्रश्न पूछने की कला को विकसित किया जा सके। कक्षा में जब तक विद्यार्थियों मे अंदर से प्रश्न उत्पन्न नहीं होंगे तब तक उनमें ज्ञान नहीं भरा जा सकता। प्रश्नों की प्यास ज्ञान रूपी गंगा से ही बुझेगी और यदि प्यास ही नहीं है तो पानी पीने का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता है। प्रश्न, अर्थात जानने की उत्कंठा। मूल सिद्धांत है ज्ञानार्जन के लिए प्रश्न का होना आवश्यक है। लेकिन बड़े मजे की हास्यास्पद बात तो यह है कि हमारी शिक्षा पद्धति एवं पाठ्यपुस्तकों के माध्यम से विद्यार्थियों को शिक्षा देने की प्रक्रिया सीधा उत्तर बताने से ही प्रारम्भ होती है। कक्षा में प्रवेश करते ही विद्यार्थी के अंदर जब कोई प्रश्न ही नहीं है तो पढ़ाई के नाम पर उत्तर कैसा ? उसे पढ़ाई के नाम पर सिर्फ उत्तर ही उत्तर रटाये जा रहे हैं। बार बार उसे ज्ञान घोंट कर पिलाया जाता है। सबसे पहले उसे उत्तर पढ़ाया जा रहा है फिर उसी के आधार पर प्रश्नों का निर्माण किया जाता है। बिना प्रश्न के उत्तर फिर उत्तर में से प्रश्न बनाओ और फिर रट लो इसके बाद उसी उत्तर को लिख दो। यह तो शिक्षा की बिल्कुल उल्टी प्रक्रिया हुई। यह तो शिक्षा पद्धति का शीर्षासन है। यह तो ठीक उसी तरह हुआ जैसे किसी खाली डिब्बे का ढक्कन ऊपर से बंद है और उस डिब्बे पर आंख बंद किए घी डालते जा रहे हैं। डिब्बे के अंदर घी जा ही नहीं पा रहा है और जब बाद में देखा कि डिब्बा खाली का खाली है। अर्थात हमें विद्यार्थी के अंदर उस विषय वस्तु से संबंधित प्रथमतः एक ऐसी उत्कंठा निर्मित करना होगी जिससे कि शिक्षक के समक्ष प्रश्नों की बौछार होने लगे और फिर उत्तर के रूप में ज्ञान का प्रवाह हो सके। शिक्षा संस्थानों में एक ऐसी शिक्षा पद्धति की योजना बनायी जानी चाहिये जिससे कि विद्यार्थी में प्रारम्भकाल से ही ज्ञान अर्जित करने की उत्कंठा जागृत हो सके, जिससे कि वह अधिक से अधिक प्रश्न पूंछे। शिक्षा ग्रहण करने में प्रश्नों की रोचकता माध्यम बने।
लेखक- राजेन्द्र तिवारी,
अभिभाषक, छोटा बाजार दतिया
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नोट:- लेखक एक वरिष्ठ अभिभाषक एवं राजनीतिक, सामाजिक विषयों के समालोचक हैं।