- औद्योगिकरण के नाम पर झारखण्ड के आदिवासियों,दलितों, शोषितों के साथ किया जा रहा भद्दा मजाक
प्राकृतिक संसाधनों के दृष्टिकोण से झारखण्ड देश का सबसे अव्वल राज्य माना जाता है। सीसा, कोयला, लोहा, तांबा, जस्ता, बाक्साईड, यूरेनियम, सोना-चाॅदी व अन्य प्रकार के खनिज पदार्थ इस राज्य में प्रचूर मात्रा में उत्पादित होते है, तथापि यह राज्य आर्थिक, व्यापारिक व उद्योगिक मान्यताओं में देश के अन्य राज्यों की तुलना में काफी पिछड़ा राज्य घोषित है। भारी मात्रा में खनिज संपदाओं के पाए जाने व उसके दोहन के बाद भी इस राज्य की तकदीर और तस्वीर नहीं बदली जबकि बिहार से अलग हुए इस राज्य ने साढ़े 12 वर्षों की आयु पूरी कर ली है। खेती, दिहाड़ी मजदूरी व दूसरों की चाकरी पर टिकी रह गइ्र्र है इस राज्य की आदिम जाति/जनजाति, पिछड़ों व दलितों की तकदीर। गैर सरकारी श्रोतों से प्राप्त जानकारी के अनुसार प्रति वर्ष तकरीबन 40-50 लाख लोग मौसमी रोजगार की खातिर पश्चिम बंगाल, असम, अरुणाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, मेघालय, सिक्क्मि, मिजोरम व पंजाब-हरियाणा की राह इस प्रदेश से पकड़ लेते हैं। एक फसली खेती पर आधारित इस राज्य की जीवन-व्यवस्था में वर्ष भर पेट की क्षुब्धा मिटाने के लिये नागरिकों को दूसरे-तीसरे राज्यों की ओर पलायन के लिये मजबूर होना पड़ता है। यह बड़ी बिडम्बना नहीं तो और क्या है कि जो राज्य खनिज संपदाओं, वनोपज सामग्रियों, बहुमूल्य लकडि़यों, औषधीय पेड़-पौधों, उत्तम किस्म के पत्थर खदानों व अन्य महत्वपूर्ण चीजों में प्रतिवर्ष केन्द्र सरकार को सबसे अधिक राजस्व का लाभ पहुॅचाता हो, उस राज्य के नागरिकों को दो जून रोटी की खातिर दूसरे राज्यों में भटकना पड़ता है ? इतना ही नहीं दूसरे राज्यो में काम की तलाश में जाने वाली महिला मजदूरों के साथ अमानवीय अत्याचार भी काफी बढ़-चढ़ कर होता है। झारखण्ड से बाहर काम की तलाश में जाने वाली सैकड़ों जवान युवतियाँ जहाँ एक ओर अपनी अस्मत लुटा कर ही वापस घर लौटती हैं वहीं कई-कई लड़कियों का प्रदेश के बाहर जाने के बाद कोई अता-पता तक नहंी चलता। कुछ ऐसे गिरोह के लोग भी इन मजदूरों की टोलियों में शामिल होतें हैं जो प्रलोभन देकर इन्हें इस प्रदेश से अन्य प्रदेशों में ले तो जाते हैं, किन्तु वहाँ से अन्य मूल्कों यथा बंग्लादेश, नेपाल, पाकिस्तान तथा खाड़ी के देशों में अमीरों के यहाँ गिरवी छोड़ जाते हैं। प्रतिवर्ष इस तरह सैकड़ों-हजारों लड़कियों की गुमशुदगी के मामले संबंधित थाने में दर्ज किये जाते हैं लेकिन उसका कोई खास परिणाम सामने नहीं आता। सीपीएम नेता एहतेशाम अहमद के अनुसार-झारखण्ड के संताल परगना प्रमण्डल अन्तर्गत उप राजधानी दुमका सहित देवघर, गोड्डा, पाकुड़, जामताड़ा व साहेबगंज में इस तरह के मामले समय-असमय दिख ही जाया करती हें। सीपीएम नेता व सामाजिक कार्यकर्ता एहतेशाम अहमद के अनुसार कई लोगों के सगे-संबंधी मौसमी रोजगार की स्थिति में घर से बाहर तो निकलते हैं लेकिन वे लौटकर वापस नहीं आते। कुछ-कुछ ऐसे भी होते हैं जो आधुनिकता की अंधी दौड़ में जिस स्थान के लिये कुच करते हैं वहीं के होकर रह जाते हेैं। क्या कभी इस बात पर गौर करने का प्रयास किया गया कि आखिर झारखण्ड की बहु-बेटियों के साथ ऐसा क्यों हो रहा ? क्या विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत में आधी आबादी का सच यही है ? जहाँ महिलाओं को सती सावित्री सीता, सती अनसुईया, दुर्गा, लक्ष्मी, और न जाने किन-किन विशेषणों से विभूषित कर उन्हें सम्मानित किया जाता हो उस देश की ऐसी दुदर्शा।
राज्य के रुर कहे जाने वाले संताल परगना प्रमण्डल की स्थिति तो और भी बद्तर हो चुकी है। चाहे उद्योग-धंधों की बात हो , व्यवसाय-व्यापार की बात, शिक्षा-संस्कृति की बात हो, सामाजिक संरचना में उत्तरोत्तर विकास यात्रा की बात या फिर एक व्यक्ति से एक परिवार के भरण-पोषण की बात। राज्य में पूरी आबादी का एक तिहाई हिस्सा आज भी कृषि व वनोपज सामग्रियों पर आधारित है। संताल परगना टिनेंसी एक्ट-(संशोधित) 1949 के विभिन्न धाराओं के अन्तर्गत वर्णित कानून में संताल परगना क्षेत्र के आदिवासियों की जमीन पूरी तरह अहस्तांतरणीय है।
संताल परगना रेगुलेशन एक्ट -1872 (3) के तहत ब्रिटीश हुकुमत के तत्कालीन बायसराय ने इस जंगल-तराई क्षेत्र के लिये एक व्यवस्था कायम की थी जिसके अनुसार आदिवासी अपनी जमीन की बिक्री नहीं कर सकेगें। इस कानून को बनाने के पीछे उनकी मंशा चाहे जो भी रही हो, कहा तो यही जाता है कि समाज से बिल्कुल कटे इस वर्ग की स्थिति इतनी दयनीय थी कि जो कुछ ही जमीन उनके हिस्से भरण-पोषण के लिये दिये गए थे। महाजन थोड़े-थोड़े पैसे देकर जमीन की गिरवी अपने नाम करवा लिया करते थे। जरुरत पड़ने पर समय-असमय आदिवासियो को दारु का पैसा देकर उन्हें जमीन से बेदखल कर दिया जाता था। इसी का परिणाम था कि सिदो कान्हु, चाॅद-भैरव के नेतृत्व में साहेबगंज के भोगनाडीह में 30 जून 1855 को ऐतिहासिक संताल-हूल की नींव रखी गई जो शोषण, उत्पीड़न, अत्याचार व महाजनी प्रथा के विरुद्ध था। इस हुल ने भारत की स्वतंत्रता क्रांति की नींवें भी तैयार कर के रख दी थी। महाजनों के प्रभाव में आने के बाद आदिवासियो की स्थिति दिन-व -दिन दयनीय होती जा रही थी, परिणामस्वरुप धीरे-धीरे वे हाशिये पर आ गए थे ।
आदिवासियों में यह मान्यता अभी तक कायम है कि प्रकुति देवता को प्रसन्न रखने, उनकी अराधना में और जीवन के अनिवार्य पेय पदार्थ के रुप में हडि़या (एक प्रकार का परम्परागत पेय पदार्थ, जो भात को गलाकर बनाया जाता है और जिसमें अलग-अलग जड़ी-बुटियों को मिलाकर तैयार बाखर डाला जाता है जो शराब का स्वरुप तैयार कर देता है) का उपयोग करके वे प्राकृतिक आपदाओं से खुद को बचा सकते हैं। (परंपरागत मान्यताओं की वजह से पीने का प्रचलन तो आज भी मौजूद हैं तथापि इस मोह से हटने वालों की संख्या में लगातार इजाफा जारी है) दूसरी इसलिये कि आदिवासी जल-जंगल व जमीन के उपर ही निर्भर होते हैं, जीवन जीने का कोई अन्य विकल्प नहीं रह जाता है इनके लिये। यदि इनकी जमीन हस्तांतरणीय बना दी जाएगी तो आर्थिक रुप से कमजोर व अशिक्षित आदिवासी अपनी अस्मिता को भी खो देगें। उनका अस्तित्व समाप्त हो जाऐगा। अंग्रेजों की बनायी गई नीतियों से आदिवासी समुदाय काफी हद तक अपनी-अपनी जमीन पर आज भी मालिकाना हक बनाए हुए हैं तथाति इस क्षेत्र की अधिकांश आबादी दूसरों पर निर्भर है। प्राकृतिक सम्पदाओें की भरमार से बाहरी पूॅजीपतियों की लगातार दखलंदाजी व सरकार में बैठे लोगों की इन आदिवासियों के प्रति उपेक्षा की भावना से इस क्षेत्र में उद्योगीकरण का सिलसिला लगातार जारी है। यह आॅकड़ा चैकाने वाला है कि अलग राज्य के रुप में अस्तित्व में आने के बाद से लेकर अब तक झारखण्ड में सौ से भी अधिक मेगा एमओयू पर सरकार व अलग-अलग कम्पनियों के समझौते हुए, जिनपर काम व विरोध भी जारी है। किसी भी हालत में पूॅजीपतियों को जल-जंगल, जमीन न देने की वर्षों से राजनीति करने वाले झारखण्ड के रहनुमाईनो ने भी इस झारखण्ड को शोषण के दलदल में डाल कर अपने साम्राज्य को बढ़ाने का ही काम किया है। यह दिगर बात है कि दुमका में काठीकुण्ड प्रखण्ड के पोखरिया-आमगाछी में आर0पी0जी0 ग्रुप द्वारा पाॅवर प्लान्ट बैठाने की कवायदों पर ग्रामीणों का उग्र आन्दोलन कम्पनी की भावी योजनाओें का मिट्टी पलित कर गया। जिंदल, भूषण, अभिजीत व अन्य ग्रुपों द्वारा तथापि आज भी बड़ी-बड़ी परियोंजनाओं पर काम करने की कोशिशें जारी है।
संताल परगना प्रमण्डल अन्तर्गत तीन ऐसे क्षेत्र हैं जहाॅ पाॅवर प्लान्ट के लिये सबसे उत्तम किस्म के कोयले पाए जाते हें। ललमटिया कोल (ईसीएल) परियोजना,गोड्डा पेेनम कोल परियोजना, पाकुड़ व चितरा कोल माइन्स। 30 नवम्बर 2006 को पूर्व डिप्टी सीएम प्रो0 स्टीफन मरांडी, षाजी जोसेफ व विकास मुर्खजी की उपस्थिति में पाकुड़ के अमरापाड़ा प्रखण्ड में स्थित कुल 11 गाॅवों (सिंहदेहरी, तालझारी, खटलडीह, चिलगो, विशनपुर, डांगापाड़ा, आमझारी, आलूबेड़ा व पाॅचूबाड़ा) में कोयला उत्खनन के लिये राज महल पहाड़ बचाओ आन्दोलन के अध्यक्ष व परगनैत (आलूबेड़ा डाकबंग्ला, ग्राम पाॅचूबाड़ा, पाकुड़) बिनेज हेम्ब्रम के बीच पेेनम कोल परियोजना के संचालक विश्वनाथ दत्ता का कई मुद्दों को ध्यान में रखकर एकरारनामा पर हस्ताक्षर संपन्न हुआ। पंजाब स्टेट इलेिक्ट्रसिटी बोर्ड को कोयला आपूर्ति के लिये इस परियोजना द्वारा पाकुड़ के अमड़ापाड़ा प्रखण्ड स्थित इन तमाम ग्रामों में कोयला उत्खनन का सर्वाधिकार दे दिया गया। कम्पनी ने इस एवज में कई अहम मुद्दों पर काम करने की अपनी बाध्यता रखी।
शर्तो के मुताबिक कम्पनी की बाध्यता यह थी कि वह इस क्षेत्र के ग्रामीणों को वे सारी सुविधाऐं मुहैया करवाऐगी जो जीवन के लिये अनिवार्य है मसलन रोटी, कपड़ा मकान, शिक्षा, सामाजिक प्रतिष्ठा, उनकी परंपरागत संस्कृति, रीति-रिवाज, खान-पान, वेश-भूषा और भी बहुत कुछ। समझौते के मुताबिक कम्पनी ने कोयला उत्खनन का कार्य व्यापक पैमाने पर तो करना प्रारंभ कर दिया किन्तु कम्पनी हमेशा अपने वायदे से मुकरती रही। जिन क्षेत्रों में कम्पनी कोयला उत्खनन का कार्य कर रही है लोग मुख्य धारा से आज भी पीछे है। न तो रोजगार की पूर्ण व्यवस्था ही कम्पनी कर पायी है और न ही शिक्षा की उचित व्यवस्था। आवासीय व्यवस्था भले ही दिखावे के लिये निर्मित कर दी गई लेकिन न तो विद्युत व्यवस्था ग्रामों में बहाल है और न ही पेयजलापूर्ति की उचित व्यवस्था। सड़के पूरी तरह खराब हैं। न तो स्कूल-काॅलेजों की स्थापना की गई और न मनोरंजन, खेल की कोई व्यवस्था। कम्पनी द्वारा कोयला उत्खनन गाॅव में रोशनी तक लोगों को उपलब्ध करा पाने में उसमर्थ है। विदित हो पेेनम कोल परियोजना में कुल 400 इम्प्लाईज हैं। जिस खटलडीह ग्राम में इस परियोजना द्वारा प्रतिदिन 550 डम्फरों के माध्यम कोयला उत्खनन का कार्य किया जा रहा है उक्त ग्राम में तकरीबन 150 घर विस्थापित हैं। इन 550 डम्फरों के माध्यम से प्रतिदिन तकरीबन तीन लाख टन कोयला का उत्खनन कार्य किया जाता है। आॅकड़ांे पर गौर फरमाएंे तो यह बात सामने आती है कि प्रति एक डम्फर में 30 टन कोयला की ढुलाई की जाती है। इस तरह कुल 550 डम्फरों के माध्यम से एक ट्रªीप में 16500 टन कोयला ढोया जाता है। इस तरह तकरीबन प्रतिदिन 5-6 रैक कोयला उत्खनन कर उसे पंजाब भेजा जाता है। प्राप्त आॅकड़ों के मुताबिक एक रेलगाड़ी में कुल 55 से 60 बोगियाॅं होती हैं, और प्रतिदिन तकरीबन 5 से 6 रैक कोयला उत्खनन कर उसे पंजाब भेजा जाता है।
इस तरह पेेनम कोल परियोजना कर्मचारियों के वेतन-भत्ते, डीजल-पेट्रªोल, इस बड़ी व्यवस्था के सारे खर्च के बाद तकरीबन 2 करोड रुपये प्रतिदिन कम्पनी को शुद्ध मुनाफा होता है। मासिक आय की गणना करें तो यह मुनाफा 60 करोड़ व वार्षिक 720 करोड़ रुपये कम्पनी को शुद्ध मुनाफा प्राप्त होता है। जो कम्पनी प्रति वर्ष 720 करोड़ रुपये का शुद्ध मुनाफा कमाती है उसकी स्थिति यह है कि विस्थापितों के लिये जो सुविधाऐं-व्यवस्थाऐं संवैधानिक तौर पर किया जाना चाहिऐ उससे कोसों दूर है। कम्पनी भी अंग्रेजों की पाॅलिसी पर काम करती है। जो दबंग हैं उन्हें या तो ठेकेदारी दे दी गई या फिर कम्पनी में उनके आदमी को बिना काम रख लिया गया ताकि विरोध का स्वर पनप न सके। कुछ को प्रति माह एक बड़ी राशि का पैकेज प्राप्त है बिना हाथ-पाॅव डुलाऐ। कृछ नेताओं का वरदहस्त भी कम्पनी को है क्योंकि नेताओं की बड़ी-बड़ी ट्रªान्सपोर्ट कम्पनियाॅ भी कार्यरत है जिनकी सैकड़ों डम्फरों को कम्पनी में चलाया जाता है। बाहर की कम्पनियाॅ झारखण्ड आकर करोड़ों-अरबों रुपये प्रतिमाह कमाती है लेकिन झारखण्ड की अवाम को न तो दो जून की रोटी नसीब है और न ही पूरी तरह तन ढकने के लिये कपड़ा। आवास की बात तो जुदा ही है। पहाड़ और जंगल जो आदिवासियों की जीवन-संस्कृति का अभिन्न अंग है और जिसकी मौजूदगी से ही उनका अस्तित्व झलकता है, अपने कुनबे से लगातार बेदखल किये जा रहे, ऐसा क्यॅू ? जंगलो-पहाड़ों का प्रतिदिन बलात्कार किया जा रहा किसलिये ? यह तो वही हुआ जिस थाली में खाना खा रहे उसी में कर रहे छेद ? जिन गवाहों की मौजूदगी में पेेनम कोल परियोजना और परगनैत के बीच समझौते पर हस्ताक्षर हुए उन गवाहों का भी इससे कुछ लेना-देना नहीं रहा। उन्होनें तो एक साजिश के तहत समझौते करवाऐ ताकि बैठे-बिठाऐ ही उनकी जीवन की बैलगाड़ी चलती रहे। प्रति वर्ष दिल्ली के लाल किला की प्राचीर से स्वतंत्रता दिवस व गणतंत्र दिवस के अवसर पर देश की अवाम के नाम महामानवों का संदेश जाता है। आदिवासियों, दलितों, शोषितों, पिछड़ों व अन्य आहत वर्गों की बेहतरी के लिये योजनाओं को अमल में लाने की बातें कही जाती है और इन्हें हर तरह की सुविधाओं से परिपूर्ण रखने की घोषणाऐं दुहरायी जाती है तो फिर धरातल पर इस तरह की दोहरी नीति आखिर क्यों ? झारखण्ड की अवाम जानना चाहती है सूबे व केन्द्र के रमनुमाईयों से कि क्यों नहंी उन्हें उनके वास्तविक अधिकार लौटाये जा रहे ?
अमरेन्द्र सुमन
दुमका
(झारखण्ड)