बैंड-बाजे की धुन पर छात्रों ने निकाला जुलूस। कहा, अब मालवीय जी को दी गयी सच्ची श्रद्धांजलि। वह ऐसी शख्सियत रहे जो आधुनिक शिक्षा, रोजगारपरक शिक्षा व महिला शिक्षा की बात उस दौर में कर रहे थे, जब बहुत कम ही लोग शिक्षा का महत्व समझ पा रहे थे
दिन मंगलवार को सुबह से बनारस हिन्दू विश्व विद्यालय के छात्र मगन थे। लेकिन जैसे ही महामना मदन मोहन मालवीय जी को मिला भारत रत्न के साथ कुलपति डॉ. जीसी त्रिपाठी परिसर में पहुंचे छात्रों की खुशी का ठेकाना न रहा। फिर क्या एक-दो नहीं छात्रावासों लेकर डेलीगेसी के छात्र गाजे-बाजे के साथ भारत रत्न को लेकर सड़कों पर निकल गए, ताकि सबके सब इस सम्मान को अपनी आंखों से निहार सके। जुलूस में शामिल चाहे वह छात्र-छात्राएं हो या फिर कुलपति या फिर प्रोफेसर व कर्मचारी सभी एक दूसरे अबीर-गुलाल लगाकर व मिठाईयां खिलाकर बधाई देते नजर आएं। अंत में सबके सब महामना की प्रतिमा स्थल पहुंचे और भारत रत्न के साथ उन्हें श्रद्धासुमन फूल चढ़ाकर आशीर्वाद लिया। इस खुशी में भला विश्वनाथ मंदिर परिसर अछूता रहता यह नामुमकिन रहा। वहां भी मंदिर के पुजारी व भक्तों ने जमकर खुशियां बांटी।
प्रो त्रिपाठी भारत रत्न के साथ सबसे पहले मालवीय भवन पहुंचे, जहां नन्हें बटुकों ने मंगलाचरण का पाठ किया और भजन कीर्तन। इसके बाद खुशियों का दौर शुरु हुआ तो देर रात तक थमा ही नहीं। गौरतलब है कि 24 दिसंबर 2014 को मालवीय जी व अटल जी को भारत रत्न देने की घोषणा की गयी थी। तीन महीने बाद 30 मार्च राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने महामना के परिवार को देश के सर्वोच्च सम्मान से सम्मानित किया। छात्रों का कहना है कि महामना को मिला भारत रत्न विश्वविद्यालय में आने से सुखद अनुभूति हो रही है। यह महामना के प्रति कृतज्ञ राष्ट्र की श्रद्धांजलि है। हालांकि, यह काफी देर से लिया गया निर्णय है। महामना की शिक्षा भूमि से निकले सीएनआर राव को पहले ही यह सम्मान मिल चुका है। फिर हाल खुशी से झूम रहे छात्रों ने कहा ऐसा अनुभूति हो रहा, जैसे बीएचयू के हर शख्स को भारत रत्न मिल गया है। बेशक, छात्र-छात्राओं का झूमना लाजिमी है। क्योंकि महामना जी ऐसी शख्सियत महामना पंडित मदन मोहन मालवीय जी, जो अपने जीवन काल में ही महामना बन चुके थे। उनके व्यक्तित्व में विद्वत्ता, शालीनता, विनम्रता की असाधारण छवि थी, इसलिए वे जन-जन के नायक थे। परिश्रम और लगन के साथ विलक्षण बुद्धि के बल पर उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की। उनकी सादगी, उनकी सरलता, उनकी पवित्रता और उनकी मुहब्बत का परिणाम ही उन्हें उस मुकाम पहुंचाया।
अत्याधुनिक सोच के साथ शिक्षा की अलख जगाने वाले महामना मदन मोहन मालवीय ने उस दौर में भी स्त्री के लिए शिक्षा के महत्व और राष्ट्रीयता के साथ-साथ रोजगारपरक शिक्षा की बार-बार वकालत की थी। उनका मानना था कि पुरुषों की अपेक्षा स्त्री की शिक्षा का अधिक महत्व है, क्योंकि वे ही भारत की भावी संतति की मां हैं। वे हमारे भावी राजनीतिज्ञों, विद्वानों, तत्वज्ञानियों, व्यापार तथा कला-कौशल के पुरस्कर्ताओं की प्रथम शिक्षिका हैं। उनकी शिक्षा का प्रभाव भारत के भावी नागरिकों पर विशेष रूप से पड़ेगा। महाभारत में कहा गया है- ‘माता के समान कोई शिक्षक नहीं है।’ वे नारी जाति का सर्वतोभावेन उत्थान और कल्याण चाहने वाले महामानव थे। उनकी मान्यता थी कि लड़कियों को सारी शिक्षा सुलभ होनी चाहिए। उनकी धारणा थी, हमें स्त्रियों को साहित्य और संस्कृति के उत्तम ज्ञान के साथ शिक्षा देनी चाहिए। देश की स्त्रियों का किस प्रकार शारीरिक, मानसिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक उत्थान किया जा सकता है, ऐसी शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिए।’ नारी में ऐसे समृद्ध व्यक्तित्व की परिकल्पना उनके अंतर्मन में थी, जो प्राचीन तथा नवीन सभ्यता के सभी गुणों का समन्वय हो। मालवीय जी ने कहा था- ‘विद्यार्थियों को प्रयोगात्मक ज्ञान के साथ विज्ञान, कला कौशल और व्यवसाय सम्बंधी ऐसी शिक्षा दी जाये, जिससे देशी व्यवसाय तथा घरेलू उद्योग-धंधों की उन्नति हो।’
भारत में प्रचलित शिक्षा प्रणाली की निर्थकता पर मालवीय जी ने कहा था- ‘हम लोग अंधविश्वासी की भांति एक ऐसी शिक्षा प्रणाली का अनुकरण करते चले आ रहे हैं, जिसका निर्माण अन्य जातियों के लिए हुआ था और जिसका उन्हीं लोगों ने बहुत दिन हुए परित्याग कर दिया है, किन्तु हम उसकी अर्थी लिए हुए आज भी उसमें जीवन होने की आशा करते हैं।’ मालवीय जी का दृढ़ विश्वास था कि राष्ट्रीय शिक्षा का विस्तार केवल राष्ट्रीय सरकार द्वारा ही संभव है। ‘हाईस्कूल स्तर की शिक्षा अन्य देशों की भांति तभी सफल मानी जा सकती है, जब वह विद्यार्थियों को अर्थाजर्न योग्य बनाने वाली हो.. अर्थाजर्न परक शिक्षा होने पर हाईस्कूल की शिक्षा में विद्यार्थियों की संख्या में वृद्धि होगी और उस अवस्था में उच्च शिक्षा पर व्यय किये गए धन का परिणाम भी अच्छा होगा..। शिक्षा के लिए युवकों को दूर न जाना पड़े और छात्र अर्थकारी शिक्षा कम व्यय में अपने समीप के विद्यालय में ही प्राप्त कर सकें, ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए।’ जहां तक उनके द्वारा विश्व विद्यालय निर्माण की चंदे की बात है तो वह काशी नरेश से लगायत हर तबके से कुछ न कुछ किसी न किसी रुप में चंदा लिया, लेकिन उनका चंदा लेने का एक अंदाज आज भी लोगों के जेहन में है वह है हैदराबाद के निजाम का। बताते है कि मालवीय उनके पास भी पहुंचे थे, लेकिन निजाम ने इनकार कर दिया था। संयोग ही है कि उसी वक्त निजाम के एक सेठ का निधन हो गया। शव यात्रा में घर वाले पैसों लुटाते चल रहे थे। मालवीय जी भी शवयात्रा में शामिल हो गए और पैसा बटोरने लगे। एक व्यक्ति ने पूछा कि आप यह क्या कर रहे हैं? महामना ने जवाब दिया- ‘भाई क्या करूं? तुम्हारे निजाम ने कुछ भी देने से इनकार कर दिया और जब खाली हाथ बनारस लौटूंगा तो लोगों के पूछने पर कि हैदराबाद से क्या लाए हो तो क्या यह जवाब दूंगा कि खाली हाथ लौट आया! भाई, दान निजाम का न सही, शव-विमान का ही सही।’ यह जानकारी होने पर निजाम बहुत शर्मिदा हुआ और उसने माफी मांगते हुए महामना को काफी सहायता की दी थी। कहते है मालवीय जी ने उस दौर में भी बेरोजगारी का मुख्य कारण अशिक्षा ही बताया था और जो षिक्षत हो गया उसे भी रोजगार नहीं मिलता। उनका ईशारा साफ था, वह मानते थे कि शिक्षा ऐसी हो जिससे रोजगार मिल सके, जबकि विश्वविद्यालय विभिन्न विषयों की अर्थकारी शिक्षा नहीं देते। कला तथा विज्ञान में उपाधि प्राप्त करने वाले व्यक्ति केवल एक शिक्षक या राज्य कर्मचारी के पद के योग्य ही बन पाते हैं, परन्तु स्कूल-कॉलेज और नौकरी में प्रतिवर्ष निकले हुए स्नातकों की अल्प संख्या में ही नियुक्ति हो पाती है। महामना जी कहा करते थे देश में जागरुकता तभी संभव है जब हर व्यक्ति शिक्षित हो। उनका तर्क था- ‘देश में उच्च शिक्षा के विकास के साथ राष्ट्रीयता की शिक्षा अनिवार्य रूप से दी जानी चाहिए, जिससे क्षेत्रवाद, भाषावाद, जातिवाद तथा बहुधर्मवाद वाले भारत देश में सबसे ऊपर राष्ट्रीय चरित्र का विकास हो और देश में एकता स्थापित हो।’ जर्मनी, फ्रांस, जापान, अमेरिका आदि देशों ने अपने स्कूलों में देशभक्ति की शिक्षा देकर अपनी राष्ट्रीय शक्ति तथा दृढ़ता का निर्माण किया है।
(सुरेश गांधी)