हम सभी तीर्थयात्री है। यह धरती हमारा अंतिम गंतव्य नहीं। पद, पैसा, ताकत ये दुनिया की बातें है, ये हमारे ईश्वर नहीं हो सकते। सृष्टिकर्ता और मुक्तिदाता ही हमारे ईश्वर है। मसीह हमारे राजा है। उनका राज प्रेम, दया, क्षमा और न्याय पर आधारित है। ईसा ने हमेशा सच्चाई की बात की, सच्चाई के लिए जीए और सच्चाई के लिए ही मर गए
देखा जाय तो प्रोफेशनल सहित हर मसीही यीशु का राजदूत है। उन्हें अपने कार्यो से मसीहियत की साक्षी देनी है। साथ ही सुसमाचार का प्रचार भी करना है। यीशु के जन्म की भविष्यवाणियां नबियों द्वारा की गयी थी। उनका जन्म परमेश्वर की पूर्व निर्धारित योजना के तहत हुआ था। यीशु मसीह किसी व्यक्ति, जाति या राष्ट्र के लिए नहीं बल्कि पूरी मानव जाति के उद्धार के लिए आएं थे। क्रिसमस विनम्रता, दानशीलता व शांति का संदेश देता हैै। कई लोग विनम्रता को कमजोरी का पर्याय समझ लेते हैं, पर यीशु ने बताया कि सच्ची महानता विनम्रता में है। एक विनम्र व्यक्ति ही ईश्वर को अपना सृष्टिकर्ता और सबकुछ समझता है। विनम्र बनने के लिए किसी डिग्री की जरुरत नहीं होती, सिर्फ यीशु का जीवन दर्शन समझने की जरुरत है। हर धर्म प्रेम, दया, शांति, सद्भावना की बात करता है, पर कुछ कट्टरपंथी अपने धर्म का स्वरुप बदल देते है। ऐसे लोग सहिष्णुता को समाप्त करते है। धर्म का सही स्वरुप समझना जरुरी है। सभी एक ही ईश्वर की संतान है। न कोई छोटा और न कोई बड़ा है। जहां दरिद्र की सेवा है, वहां ईश्वर है।
प्रत्येक परिवार की भांति सम्पूर्ण मानव परिवार की एक वास्तविक भूख है। शांति समस्त मानव जाति की एक अलौकिक प्यास है। ईश्वर की प्राप्ति में ही वास्तविक शांति निहित है, यह इसलिए क्योंकि हर मनुष्य चाहे वह नर हो या नारी ईश्वर के प्रतिरुप सृष्ट किया गया प्राणी है। इसी प्रवृत्ति का व्यावहारिक रुप शांति की चाह में या शांति की प्यास में प्रकट होता है। संत अगुस्तीन जैसे महान दार्शनिक कथन है, ‘मानव हृदय ईश्वर के लिए बना है और यह तबतक अशांत रहेगा जबतक कि यह ईश्वर में विश्राम नहीं करता। खीस्त जयंती हमें याद दिलाती है कि शांति का सूत्र शांति के राजकुमार बेतलेहेम के बालक यीशु के चरनी के अर्थ में और शांति की कुंजी उसके नन्हें हाथों में है। गोशाले में जन्म लेना और चरनी में रखा जाना एक अत्यंत दयनीय स्थिति का बोधक प्रतीत होता है, पर बालक यीशु का यह दयनीय स्थिति मात्र परिस्थितिवश नहीं है, यह एक ईश्वर का विधान है। शांति का राजकुमार अपने जन्मस्थान के लिए एक महल नहीं बल्कि एक गोशाले को चुनता है। वह एक राजकीय शय्या नहीं बल्कि एक चरनी का आलिंगन करता है। इस तरह वह संपनता नहीं निर्धनता को अपनाता है। ऐसा क रवह एक ओर गरीबों के साथ अपनी सहभागिता दिखाता है तो दुसरी ओर वह धन-दौलत, एश-ओ-आराम व मान-सम्मान की जगह ईश्वर के राज्य और उसकी धार्मिकता को प्राथमिकता को देता है। चरनी में पशुओं के लिए चारा यानी आहार रखा जाता है। जन्म लेते ही यीशु को चरनी में रखा जाना मानव के लिए उसका आहार बन जाना संकेत है। अर्थात मानवहित में शांति की स्थापना में पूर्णतया समर्पित जीवन। उसकी चरनी उसके क्रूस-मरण का पूर्वसूचक है जहां उसके समर्पण, उसकी दीनता, आज्ञाकारिता और क्षमाशीलता की पराकाष्ठा है। रोमी कानून व्यवस्था को बनाएं रखने के लिए क्रूरतम क्रूस-दंड की व्यवस्था थी। यीशु ने उस अन्यायपूर्ण क्रूस-दंड को गले लगाया और कू्रस पर अपनी बाहें फैलाकर क्षमा दान करते हुए पूरी मानव जाति का आलिंगन किया। उसने रोमी शांति के क्रूर साधन को वास्तविक शांति का अनोखा माध्यम बनाया। मसीही विश्वास के अनुसार उसने क्रूस के द्वारा दुनिया की मुक्ति कमाई। उसी मुक्ति के अनुभव में मानव की शांति है। इस तरह क्रूस के पूर्वसूचक चरनी में लेटे यीशु के नन्हें हाथों में शांति की कुंजी मौजूद है।
शांति एवं सद्भावना ईसाई धर्म के बुनियादी आदर्श हैं। पहाड़ी उपदेश के दौरान ईसा ने कहा- धन्य है वे जो मेल कराने वाले हैं, क्योंकि वे परमेश्वर के पुत्र कहलाएंगे। धार्मिक कट्टरपंथ, पूर्वाग्रह, घृणा एवं हिंसा कोई भी धर्म का आधार नहीं बन सकता है। दूसरों की गलतियों को माफ करना ईसाई धर्म का एक अन्य महत्वपूर्ण सिद्धांत है। ईश्वर के निकट जाने के लिए दूसरों की गलतियों को हृदय से माफ करना नितांत आवश्यक है। ईसा ने अपने अपराधियों को क्षमा किया है, वैसे ही तू भी हमारे अपराधों को क्षमा कर। ईसा के अनुसार दूसरों को माफ करने के लिए कोई शर्त नहीं रखी जाना चाहिए। मुक्ति प्राप्त करना या ईश्वर के राज्य को प्राप्त करना मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य है। जबकि धार्मिकता उस मंजिल तक पहुंचने का मार्ग है। धार्मिकता का मतलब ईश्वर, सृष्टि और मानव के साथ सही संबंध रखना है। इसी धार्मिकता में शांति का निवास है। जो प्रवृत्तियां, भावनाएं या कार्य ईश्वर के राज्य की ओर ले जाते है, वे शांति का मार्ग प्रशस्त करते है। जबकि अशांत हृदय बहुधा-भोग, विलास, ऐशो-आराम, धनार्जन या यश प्राप्ति जैसे नश्वर वस्तुओं की खोज में संलिप्त रहता है, जिनसे मात्र क्षणिक सुख ही मिलता है। इस तरह की खोज से उसकी बैचेनी रुकती नहीं, बल्कि बढ़ती ही जाती है। मानव हृदय में ऐसी बैचेनी बुरी आदतों जैसे मदिरा पान, नशीली पदार्थो का सेवन, अश्लीलता आदि को जन्म देती है। जिससे मानव मर्यादा की हानि होती है। परिवार दूषित होने लगता है और मानव समाज बिगड़ने लगता है। इस तरह मानव ईश्वर प्रयोजित मंजिल की राह से भटकने लगता है और शांति की प्राप्ति की उसके जिए आकाश के तारे तोड़ने जैसी बन जाती है। मतलब साफ है यीशु मसीह का जन्म सारी मानव जाति के उद्धारकर्ता के रुप में हुआ है। उनके जन्म के विषय में कई सौ साल पहले भविष्यवाणी की गयी थी। नबी इसायस के ग्रंथ में लिखा है, ‘हमारे लिए एक पुत्र उत्पन्न हुआ, हमें एक पुत्र दिया गया और प्रभुता उसके कंधे पर होगी और उसका नाम अद्भूत कार्य करने वाला, पराक्रमी परमेश्वर अनंतकाल का पिता और शांति का राजकुमार रखा जायेगा‘। कुंआरी मरियम से यीशु के जन्म के विषय में पहले से भी भविष्यबाणी की गयी थी। नबी इसाईयत के ग्रंथ में ही लिखा है, ‘‘इस कारण प्रभु एक चिरंजिव देगा? सुनो एक कुंआरी गर्भवती होगी और पुत्र जनेगी और उसका नाम इम्मानुएल रखेगी। इम्मानुएल का अर्थ है-र्ठश्वर हमारे साथ है।
पौराणिक मान्यताएं
क्राइस्ट के जन्म के संबंध में नए टेस्टामेंट के अनुसार व्यापक रूप से स्वीकार्य ईसाई पौराणिक कथा है। इस कथा के अनुसार प्रभु ने मैरी नामक एक कुंवारी लड़की के पास गैब्रियल नामक देवदूत भेजा। गैब्रियल ने मैरी को बताया कि वह प्रभु के पुत्र को जन्म देगी तथा बच्चे का नाम जीसस रखा जाएगा। वह बड़ा होकर राजा बनेगा, तथा उसके राज्य की कोई सीमाएं नहीं होंगी। देवदूत गैब्रियल, जोसफ के पास भी गया और उसे बताया कि मैरी एक बच्चे को जन्म देगी। गैब्रियल ने जोसफ को सलाह दी कि वह मैरी की देखभाल करे और उसका परित्याग न करे। जिस रात को जीसस का जन्म हुआ, उस समय लागू नियमों के अनुसार अपने नाम पंजीकृत कराने के लिए मैरी और जोसफ बेथलेहेम जाने के लिए रास्ते में थे। उन्होंने एक अस्तबल में शरण ली, जहां मैरी ने आधी रात को जीसस को जन्म दिया तथा उसे एक नांद में लिटा दिया। इस प्रकार प्रभु के पुत्र जीसस का जन्म हुआ। मान्यता है कि ईसा के बारह शिष्यों में से एक, संत योमस, ईस्वी वर्ष बावन में दक्षिण भारत आए थे। उन्होंने दक्षिण भारत के कुछ प्राचीन राजाओं के महल में भी कार्य किए थे। अपने कामों के साथ-साथ योमस ईसा के सुसमाचार का प्रचार भी करते थे। इनसे प्रभावित होकर कुछ ब्राह्मणों ने ईसाई धर्म ग्रहण किया। इसी कारण दक्षिण भारत में कई पुराने गिरजाघर देखने को मिलते हैं।
क्रिसमस संदेश
क्रिसमस शांति का भी संदेश लाता है। पवित्र शास्त्र में ईसा को ‘शांति का राजकुमार‘ नाम से पुकारा गया है। ईसा हमेशा अभिवादन के रूप में कहते थे- ‘शांति तुम्हारे साथ हो‘, शांति के बिना किसी भी धर्म का अस्तित्व संभव नहीं है। घृणा, संघर्ष, हिंसा एवं युद्ध आदि का धर्म के अंतर्गत कोई स्थान नहीं है। चरवाहों को एक स्वर्गदूत के द्वारा सभी लोगों के लिए बड़े आनंद का सुसमाचार सुनाया गया कि दाउद के नगर में उनके मुक्तिदाता प्रभु यीशु का जन्म हुआ है। उसकी पहचान के लिए उन्हें चरनी का चिन्ह दिया गया। तब उन्होंने स्वर्गदूतों को स्वर्ग में ईश्वर की महिमा और पृथ्वी पर शांति का मंगलगान गाते हुए सुना। यह शांति दुनियावी शांति नहीं वरन् आध्यात्मिक शांति है। आज की दुनिया शोर से भरी है। सांसारिक वस्तुए हमें अपनी ओर आकर्षित करना चाहती है। धन की लालच, मन की असंतुष्टि, बदले की भावना, अभिमान, बाहरी दिखावा आदि। बेतलेहेम को राजा दाउद का नगर माना जाता था। क्योंकि राजा दाउद राजा बनने से पहले बेतलेहेम के साधारण चरवाहा थे। नबियों के कथानुसार मसीह को दाउद के वंश से और दाउद के नगर बेतलेहेम से ही चरवाहे के हावभाव में आने की प्रतीक्षा थी। बेतलेहेम का अर्थ है रोटी का घर। यह उल्लेखनीय है कि रोमी जनगणना के समय यीशु मसीह का जन्म चरवाहे के नगर में रोटी के घर में हुआ और चरनी में चारा के रुप में रखा गया। यीशु ऐसे चरवाहा है जिनके पास अपनी एक-एक भेड़ का हिसाब-किताब है। वह ईश्वर का ऐसा मेमना है जो संसार के पाप हर लेता है और शांति प्रदान करता है। उसके पास शांति की रोटी और शांति का चारा है। ताकि वह हरेक की शांति की भूख और प्यास मिटा सके। बेतलेहेम के चरवाहों ने चरनी में यीशु का पहला दर्शन किया, पहचाना और शांति की भूख-प्यास मिटाकर ईश्वर का गुणगान करते हुए लौट गए। यह समाज को अच्छा बनाने का दायित्व है। आज अधिकांश लोग व्यक्त्विादी हो गए है। दुसरों की चिंता करने और समय देने से कतराते है। लगता है कि हम किसी न किसी रुप में स्वार्थी हो गए है। हम समाज की पीड़ा दूर करने का बीडा उठाना नहीं चाहते और वृहत्त उत्तरदायित्व से भागते है। उन्हें मवेशियों के चरागाह में सुलाना एक तरह से शहादत का संकेत है। किसी का चारा बनना या हिंसा का शिकार बनना वर्तमान समय की एक बिडंबना है। अदन की वाटिका में सांप के वेश में पाप पेड़ पर सवार था। प्रभु यीशु उसी की लकड़ी पर सवर्ग को लिटाते है। चरनी में अंततः उसी पाप की लकड़ी को अपने क्रूस मरण के द्वारा पूण्य और मुक्ति में परिवर्तित कर देते है।
जर्मनी से आई क्रिसमस वृक्ष की परंपरा
क्रिसमस ट्री अपने वैभव के लिए पूरे विश्व में लोकप्रिय है। लोग अपने घरों को पेड़ों से सजाते हैं तथा हर कोने में मिसलटों को टांगते हैं। क्रिसमस डे के दिन लगभग सभी ईसाई लोग अपने घर क्रिसमस वृक्ष सजाते हैं। बताते हैं कि यह परंपरा जर्मनी से प्रारंभ हुई। आठवीं शताब्दी में बोनिफेस नामक एक अंगरेज धर्म प्रचारक ने इसे प्रचलित किया। इसके बाद अमेरिका में 1912 में एक बीमार बच्चे जोनाथन के अनुरोध पर उसके पिता ने क्रिसमस वृक्ष को रंगबिरंगी बत्तियों, पन्नियों से सजाया। तभी से यह परंपरा प्रारंभ हो गई। सदाबहार फर को क्रिसमस वृक्ष के रूप में सजाया जाता है। बताया जाता है कि जब ईसा का जन्म हुआ, तो देवता उनके माता-पिता को बधाई देने पहुंचे। इन देवताओं ने एक सदाबहार वृक्ष को सितारों से सजाकर प्रसन्नता व्यक्त की। इसके बाद यह वृक्ष क्रिसमस वृक्ष का प्रतीक बन गया। क्रिसमस वृक्ष को सजाने के साथ-साथ कई स्थानों पर इस वृक्ष के ऊपर देवता की प्रतिमा लगाई जाती है। इंग्लैंड इनमें प्रमुख है। प्रतिमा लगाने की यह परंपरा राजकुमार एलबर्ट ने इंग्लैंड के विंडसर कैसल में क्रिसमस वृक्ष को सजवा कर उसके ऊपर दोनों हाथ फैलाए एक देवता की मूर्ति लगवाई। तब से यह परंपरा चल पड़ी।
दाढ़ी वाला सांता क्लॉज
क्रिस क्रिंगल फादर क्रिसमस और संत निकोलस के नाम से जाना जाने वाला सांता क्लॉज एक रहस्यमय और जादूगर इंसान है, जिसके पास अच्छे और सच्चे बच्चों के लिए ढेर सारे गिफ्ट्स हैं। इंग्लैंड में ये फादर क्रिसमस के नाम से जाने जाते हैं। इंग्लैंड के सांता क्लॉज की सफेद दाढ़ी थोड़ी और लंबी और कोट भी ज्यादा लंबा होता है। गिफ्ट्स को एक बड़ी सी झोली में भरकर वो क्रिसमस के पहले की रात यानी 24 दिसंबर को अपने स्लेज पर बैठता है। उसके बाद पलक झपकते ही उसके स्लेज में 8 उड़ने वाले रेनडियर उसे बच्चों के बीच पहुंचा देते हैं, जिन्हें वो अपने सुंदर-सुंदर उपहार देकर दुनिया में खुशियां फैलाता है।
कहानी क्रिसमस ट्री की...
क्रिसमस का मौका हो और क्रिसमस ट्री की बात न हो, ऐसा हो सकता है भला..? क्रिसमस पर इस ट्री का चलन जर्मनी से आरंभ हुआ। कहा जाता है कि मार्टिन लूथर ने क्रिसमस के अवसर पर अपने बच्चों के लिए बगीचे से फर का पेड़ लाकर अपने घर की नर्सरी में लगाया। इस पेड़ को उन्होंने कैंडल्स से सजाया ताकि वे जीसस के जन्मदिन पर बर्फीली रात की खूबसूरती को अपने बच्चों को दिखा सकें। पर क्रिसमस से इस पेड़ का जुड़ाव सदियों पुराना बताया जाता है। यूरोप में कहते हैं कि जिस रात जीसस का जन्म हुआ, जंगल के सारे पेड़ जगमगाने लगे थे और फलों से लद गए थे। यही वजह है कि क्रिसमस के दिन इस पेड़ को घर लाकर सजाते हैं। इस पेड़ को घंटियों यानी बेल्स आदि से सजाते हैं, ताकि बुरी आत्माएं दूर रहें। वहीं घर में अच्छाइयों के प्रवेश के लिए एंजेल्स और फेयरी की मूर्तियां लगाई जाती थीं। यूक्रेन में तो मकड़े यानी स्पाइडर व उसके बुने हुए जालों से क्रिसमस ट्री को सजाते हैं। वहां ऐसा माना जाता है कि एक गरीब परिवार के यहां क्रिसमस ट्री पर जाले लगे हुए थे। क्रिसमस की सुबह सूर्य की रोशनी पड़ते ही वे चांदी में बदल गए थे। ऐसी कई कहानियां हैं, जो ट्री को सजाने से लेकर जोड़ी गई हैं।
कैरल्स क्यों गाते हैं...
कैरल्स यानी क्रिसमस के गीत। क्रिसमस आते ही हवाओं में हल्की संगीत की धुन गूंजने लगती है। कैरल्स शब्द की उत्पत्ति फ्रेंच भाषा के शब्द केरोलर से भी मानी जाती है, जिसका अर्थ है घूमते हुए नाचना। क्रिसमस गीतों में सबसे पुराने गीत का जन्म चैथी सदी में हुआ। हल्की-फुल्की और गाने में आसान धुनें 14वीं शताब्दी में चलन में आईं। फिर इन्हें इटली में सुना गया। क्रिसमस कैरल्स का सर्वाधिक लेखन और विकास तथा उन्हें प्रसिद्धि 19वीं शताब्दी में मिली है। कैरल्स को नोएल भी कहा जाता है। इन गीतों में पड़ोसियों के लिए शुभकामनाएं दी जाती हैं। इसमें क्रिसमस पर अपने पड़ोसियों के घर जाना और उनके साथ बैठकर क्रिसमस कैरल का आनंद लेना होता है।
क्रिसमस दान का त्योहार
क्रिसमस एक अनोखा पर्व है जो ईश्वर के प्रेम, आनंद एवं उद्धार का संदेश देता है। क्रिसमस का त्योहार अब केवल ईसाई धर्म के लोगों तक ही सिमित नही रह गया है, बल्कि देश के सभी समुदाय के लोग इसे पूरी श्रद्धा और उल्लास के साथ मनाते हैं। क्रिसमस मानव जाति के उद्धार के लिए परमेश्वर के द्वारा की गई पहल को दर्शाने वाला त्योहार भी है। सांता क्लॉज, जो लाल व सफेद ड्रेस पहने हुए, सफेद बाल और दाढ़ी वाला एक वृद्ध मोटा पौराणिक पात्र है। जो अपने वाहन रेन्डियर पर सवार होता है। इस त्योहार पर समारोहों के दौरान विशेष कर बच्चों में बहुत लोकप्रिय होता है। वह बच्चों को प्यार करता है तथा उनके लिए उपहारों में मनचाही वस्तुएं, चॉकलेट आदि लाता है। ऐसा माना जाता है कि इन उपहारों को वह रात के समय उनके जुराबों में रख देता है। पर क्या आप जानते हैं कि आखिर सांता क्लॉज ढेर सारे उपहार लेकर एक ही रात में दुनिया भर के सभी घरों में कैसे पहुँच सकता है। इसका जवाब है, हम सब के बीच ही एक सांता छुपा होता है लेकिन हम उसे पहचान नही पाते हैं। सांता बिना किसा भी स्वार्थ के सब के जीवन में खुशियाँ ले कर आता है। हमे भी उस से एक सबक लेना चाहिए कि किस तरह हम किसी भी तरह अगर एक इंसान को खुशी दे सकें तो शायद हम भी इस क्रिसमस को सही मायने में मनाने में कामयाब हो सकेंगे।
भारत में ईसाई धर्म का प्रचार-प्रसार सर्वप्रथम केरल में सेंट थॉमस ने की
केरल में कड़ाके की ठिठुरन के बीच जाति-धर्म का भेदभाव भुलाकर लोग क्रिसमस का त्योहार मनाते हैं। ईसाई धर्म का प्रचार-प्रसार सर्वप्रथम भारत के इसी राज्य से ईसा मसीह के शिष्य सेंट थॉमस ने किया था, इसीलिए भारतीय राज्य केरल में ईसाई समाज के लोग बहुतायात में रहते हैं। सेंट जॉर्ज चर्च, होली फेमिली चर्च, सेंट फ्रांसिस चर्च, सेंट क्रूज बेसिलिका चर्च, सेंट जॉर्ज कैथेड्रल, पारुमाला आदि चर्च यहां के प्रसिद्ध चर्च है। केरल में सेंट थॉमस और माता मरियम के नाम पर ऐतिहासिक चर्च है। केरल के बाजारों में क्रिसमस की रौनक छाई रहती है। बच्चों के बीच सांता क्लॉज की मुखाकृति और टोपी को लेकर रोचकता और खुशी देखने को मिलती है। पश्चिम बंगाल के कोलकाता में भी क्रिसमस की धूम रहती है। मदर टेरेसा द्वारा सेवा और ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार के चलते पश्चिम बंगाल में ईसाई समाज की अच्छी-खासी जनसंख्या हो चली है। मदर टेरेसा के मिशनरीज ऑफ चेरिटी के तत्वाधान में यहां के सेंट पॉल कैथेड्रल, सेंट जॉन, बंदेल आदि सभी चर्चों में हिंदू और ईसाई समाज मिलकर क्रिसमस का त्योहार का मजा लेते हैं। पश्चिम बंगाल और असम में बहुत सारे चर्च हैं, जहां क्रिसमस के दिन उनकी सजावट देखते ही बनती है। इसी तरह देशभर के प्रमुख शहरों में क्रिसमस के दिन शॉपिंग मॉल और सड़कें सजी-धजी रहती हैं। ईसाई समाज के लोग सांता क्लॉज की टोपी और मुखाकृति पहनकर सड़कों पर जुलूस निकालते हैं। घर-घर में सुंदर-सा क्रिसमस ट्री सजाते हैं। एक-दूसरे को केक और मिठाइयाँ बाँटते हैं. चर्च में विशेष प्रार्थना करते हैं। भारत में विशेषकर गोवा में कुछ लोकप्रिय चर्च हैं, जहां क्रिसमस बहुत जोश और उत्साह के साथ मनाया जाता है। इनमें से अधिकांश चर्च भारत में ब्रिटिश और पुर्तगाली शासन के दौरान स्थापित किए गए थे। भारत के कुछ बड़े चर्चों मे सेंट जोसफ कैथेड्रिल, और आंध्र प्रदेश का मेढक चर्च, सेंट कैथेड्रल, चर्च आफ सेंट फ्रांसिस आफ आसीसि और गोवा का बैसिलिका व बोर्न जीसस, सेंट जांस चर्च इन विल्डरनेस और हिमाचल में क्राइस्ट चर्च, सांता क्लाज बैसिलिका चर्च, और केरल का सेंट फ्रासिस चर्च, होली क्राइस्ट चर्च तथा माउन्ट मेरी चर्च महाराष्ट्र में, तमिलनाडु में क्राइस्ट द किंग चर्च व वेलान्कन्नी चर्च, और आल सेंट्स चर्च व कानपुर मेमोरियल चर्च उत्तर प्रदेश में शामिल हैं।
क्रिसमस कार्यक्रम
क्रिसमस समारोह अर्धरात्रि के समय के बाद शुरू होते हैं। इसके बाद मनोरंजन किया जाता है। सुंदर रंगीन वस्त्र पहने बच्चे ड्रम्स, झांझ-मंजीरों के आर्केस्ट्रा के साथ चमकीली छडि़यां लिए हुए सामूहिक नृत्य करते हैं। सेंट बेनेडिक्ट उर्फ सान्ता क्लाज, लाल और सफेद ड्रेस पहने हुए, एक वृद्ध मोटा पौराणिक चरित्र है, जो रेन्डियर पर सवार होता है। वह बच्चों को प्यार करता है तथा उनके लिए चाकलेट, उपहार और अन्य वांछित वस्तुएं लाता है, जिन्हें वह संभवतः रात के समय उनके जुराबों में रख देता है। क्रिसमस के दौरान प्रभु की प्रशंसा में लोग कैरोल गाते हैं। वे प्यार व भाई चारे का संदेश देते हुए घर-घर जाते हैं। चर्च मास के बाद, लोग मित्रवत् रूप से एक दूसरे के घर जाते हैं तथा दावत करते हैं और एक दूसरे को शुभकामनाएं और उपहार देते हैं। वे शांति व भाईचारे का संदेश फैलाते हैं।
क्रिसमस से जुड़ी कुछ रोचक बातें
क्रिसमस एक ग्लोबल त्योहार है। क्रिसमस की तैयारियां आमतौर पर एक महीने पहले से जोर पकड़ लेती हैं और फिर लगभग पूरे दिसंबर माह दुनिया भर में इसकी धूम रहती है। दुनिया भर में इसे अलग-अलग तरीकों से मनाया जाता है। क्रिसमस से जुड़ी कुछ रोचक बातें इस प्रकार है-
दक्षिणी गोलार्ध में क्रिसमस गर्मी की छुट्टियों में मनाया जाता है। चैंकिए नहीं... तारीख वही है पच्चीस दिसंबर लेकिन इस हिस्से में यह गर्मियों का मौसम होता है। इस गोलार्ध में अफ्रीकी देश, न्यूजीलैंड, ऑस्ट्रेलिया तथा दक्षिण अमेरिका आदि आते हैं। तो यहां क्रिसमस धूप स्नान करते हुए सेलिब्रेट किया जाता है। ये शायद मूड की बात है और भौगोलिक परिस्थितियों की भी। हवाई में सांता क्लॉज बोट में आते हैं और कैलिफोर्निया में सर्फिंग बोर्ड पर सर्फ करते हुए। पोलिश अमेरिकन्स आज भी अपने किचन के फर्श पर सूखी घास बिछाते हैं ताकि वो उस गौशाला जैसा माहौल लगे जहां यीशू ने जन्म लिया था। यही नहीं वे डायनिंग टेबल के पास दो खाली कुर्सियां भी रखते हैं। एक मदर मेरी के लिए और दूसरी नन्हें यीशू के लिए इस उद्देश्य के साथ कि अगर कभी वे पनाह मांगते हुए घर के दरवाजे पर दस्तक दें, तो उनका स्वागत है। फ्रांस में इस दिन के लिए घरों में एक ‘थ्री किंग्स केक‘ बनाया जाता है जिसमें एक-एक बीज छुपा दिया जाता है। जिसके हिस्से में ये बीज आ जाए, वो एक दिन के लिए क्रमशः राजा-रानी बन जाता है। जर्मनी में इस अवसर पर फलों की छोटी-छोटी फलों की गुडि़यां, अदरक युक्त ब्रेड के घर आदि बनाए जाते हैं। यहां बच्चे ‘क्राइस्ट किड‘ के नाम मनपसंद उपहारों के लिए बकायदा खत लिखते हैं और उसे खिड़की पर टांग देते हैं। यह ‘क्राइस्ट किड’ सफेद परिधान और परों वाला एक फरिश्ता होता है जो सुनहरा मुकुट पहने होता है और बच्चों को गिफ्ट बांटता है। उपहारों के लिए लिखे गए खतों के लिफाफों पर शक्कर के दानों से सजावट भी की जाती है ताकि वो चमकते रहें।
स्पेन में क्रिसमस गिफ्ट बच्चों तक जनवरी में पहुंचती है। क्योंकि एक पारंपरिक मान्यता के अनुसार ‘तीन नजूमी‘ इसी दिन यीशू तक उपहार लेकर पहुंचते हैं। यहां तोहफों की आस में मोजे नहीं बल्कि जूते टांगे जाते हैं, वो भी रात को घरों की बालकनी में। इन जूतों में ढेर सारी जौ की बालियां भर दी जाती हैं। उन ऊंटों के लिए जिन पर तीनों नजूमी रात भर सफर करके, गिफ्ट्स लेकर आएंगे। सुबह होने पर जूतों में बालियों की जगह तोहफे होते हैं। बुल फाइट के लिए प्रसिद्ध स्पेन में क्रिसमस के दिन गाय को भी आदर देकर पूजा जाता है क्योंकि यीशू के जन्म के समय आखिर गौशाला में गाय ने भी यीशू को संरक्षण दिया था और अपनी सांसों के जरिए बच्चे को गर्माहट देने में भी मदद की थी।
-सुरेश गांधी-