जी हां, हर साल वैशाखी देश की सुरक्षा के लिए लोगों को जागरुक तो करती ही है बीरता की अनगिनत कहानी भी बयां करता है। वैशाखी पर दिया गया जलियावाला बाग के बलिदानियों को दी जायेगी श्रद्धांजलि
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सवालाख से एक लड़ाऊँ, गुरुगोविंद सिंह नाम कहाऊँ। ....वाहे गुरुजीका खालसा, वाहे गुरुजीकी फतेह। जिन मुख निसरत सबद गुण बाचें जय-जय हिंद नानक वंश उजास मय, बंदहूँ गुरु गोविन्द.. इन पुत्रन के वास्ते सीस दिए सत चार-चार मोह तो क्या हुआ जीवत कई हजार, जो बोले सो निहाल सतश्री अकाल.... भला इन नारों को कौन नहीं जानता। विश्व-इतिहास में शायद ही त्याग-बलिदान और उत्कट देश-प्रेम का दूसरा कोई नाम दशमेश गुरु गोविन्द सिंह जी के सम्मुख टिक सके! अपने अदम्य-पराक्रम और सहज जीवन से उन्होंने सम्पूर्ण विश्व को एक ऐसा आदर्श दिया जिससे भारतीयता का परचम और गगनचुम्बी हो सका! अपने चारो पुत्र राष्ट्र-रक्षा यज्ञ में आहूत कर देने वाले भारतीयता के महान रक्षक, स्वधर्म के प्रतिपालक, भगवतस्वरुप दशमेश गुरु गोविन्दसिंह जी का नाम आएं और बशाखी की चर्चा न हो, ये हो नहीं सकता। जी हां, बैसाखी का त्योहार सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक संदर्भों के अलावा देश के स्वतंत्रता संग्राम से भी गहरा संबंध रखता है। बैसाखी का पवित्र दिन हमें गुरू गोविन्द सिंह जैसे महापुरूषों के महान आदर्शों एवं संदेशों को अपनाने तथा उनके बताएं वसूलों पर चलने के लिए प्रेरित करता है। संदेश देता है कि हमें अपने राष्ट्र में शांति, सद्भावना एवं भाईचारे के नए युग का शुभारंभ करने की दिशा में सार्थक पहल करनी चाहिए। इस तथ्य को जो भलीभांति आत्मसात कर लेता है बोलता है यानी व्यवहार में लाता है वो निहाल हो जाता है, आनंद से भर उठता है।
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आज भी हम खासतौर से सिखों में अभिवादन के लिए सत्श्री अकाल का प्रयोग करते हुए देखते हैं, जो हमें संसार की नश्वरता का सच हमेशा याद दिलाता रहता है। गुरुवाणी में है कि जो उपजे सो बिनस है, परे आज या काल, यानी जो जन्मता है वही मरता है, लेकिन ईश्वर कभी नहीं मरता क्योंकि उसका तो जन्म ही नहीं हुआ। इस बात को गुरु गोविंद सिंह ने तत्कालीन समाज में धर्मो खासकर ऊंच-नीच जातियों में बंटे लोगों को एक कर सारी मनुष्य जाति को एक ही ईश्वरीय शक्ति के अधीन मानते हुए अपनी एक रचना ‘अकाल उस्तति’ में स्पष्ट लिखा। किस तरह 10वें गुरु गोबिंद सिंह ने कमजोर वर्गो की रक्षा करने व तानाशाही शासकों के अत्याचारों को रोकने के लिए श्री आनंदपुर साहिब में खालसा पंथ की स्थापना की। वैसे भी प्रकृति का एक नियम है जब भी किसी जुल्म, अन्याय, अत्याचार की पराकाष्ठा होती है, तो उसे हल करने अथवा उसके उपाय के लिए कोई न कोई कारण भी बन जाता है। इसी नियमाधीन जब मुगल शासक औरंगजेब द्वारा जुल्म, अन्याय व अत्याचार की हर सीमा लांघ, श्री गुरु तेग बहादुरजी को दिल्ली में चाँदनी चैक पर शहीद कर दिया गया, तभी गुरु गोविंदसिंहजी ने अपने अनुयायियों को संगठित कर खालसा पंथ की स्थापना की जिसका लक्ष्य था धर्म व नेकी (भलाई) के आदर्श के लिए सदैव तत्पर रहना। कहा जाता है पुराने रीति-रिवाजों से ग्रसित निर्बल, कमजोर व साहसहीन हो चुके लोग, सदियों की राजनीतिक व मानसिक गुलामी के कारण कायर हो चुके थे। निम्न जाति के समझे जाने वाले लोगों को जिन्हें समाज तुच्छ समझता था, दशमेश पिता ने अमृत छकाकर सिंह बना दिया।
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इस तरह बैशाखी के दिन 13 अप्रैल, 1699 को श्री केसगढ़ साहिब आनंदपुर में दसवें गुरु गोविंदसिंहजी ने खालसा पंथ की स्थापना कर अत्याचार को समाप्त किया। अहंकारी अत्यंत सूक्ष्म अहंकार के शिकार हो जाते हैं। ज्ञानी, ध्यानी, गुरु, त्यागी या संन्यासी होने का अहंकार कहीं ज्यादा प्रबल हो जाता है। यह बात गुरु गोविंदसिंहजी जानते थे। इसलिए उन्होंने न केवल अपने गुरुत्व को त्याग गुरु गद्दी गुरुग्रंथ साहिब को सौंपी बल्कि व्यक्ति पूजा ही निषिद्ध कर दी। अप्रैल, 1875 में स्वामी दयानंद सरस्वती ने आर्य समाज की स्थापना की और मूर्ति पूजा के बजाय वेदों को अपना मार्गदर्शक माना। संयोगवश तब यह दिन बैसाखी के शुभ अवसर पर ही था। बौद्ध धर्म के कुछ अनुयायी मानते हैं कि महात्मा बुद्ध को इसी दिन दिव्य ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। अतः यह दिन उनके लिए भी विशेष महत्व रखता है।
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वैसे तो वैशाखी देश के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग नामों से इस पर्व को किसी न किसी रुप में हर तबका मनाता है, लेकिन सिख समुदाय का यह एक विशेष पर्व है। पश्चिम बंगाल में ‘नबा वर्ष’ यानी ‘पोएला बैसाख’ यानी साल का पहला दिन, केरल में ‘विशू’ तथा असम में ‘बीहू’ के नाम से इस पर्व की धूम रहती है। जबकि पंजाब के किसान फसल के पकने पर अपनी खुशी के इजहार के रुप मे बैसाखी पर्व मनाते हैं। इस पर्व पर पंजाब के लोग अपने रीति-रिवाज के अनुसार भांगडा और गिद्धा तो करते ही हैं साथ ही लोकसंगीत, लोकगीत, लोकनाट्य प्रस्तुत कर इसे और सुनहरा बना देते हैं। पंजाब के गांवों में कई जगहों पर नई फसल की खुशी में वैसाखी मेले भी लगते हैं। मेले में जहां पंजाब के गबरू रंगीन पोशाकों और पगड़ी में भांगड़ा करते नजर आते हैं वहीं मुटियारें पारंपरिक नृत्य ‘गिद्दा’ कई तरह की बोलियों के साथ करती हैं। पूरा माहौल आनंद उत्सव से नहा उठता है। बैसाख माह की शुरुवात या यूं कहें सूर्य के मेष राशि में प्रवेश होते ही बैसाखी पर्व होती है। इस बार वैशाख मास की षष्ठी तिथि यानी 13 अप्रैल को मनाया जाएगा। वैशाखी पर्व विशेष रुप से कृषि पर्व है। इसके आगमन के साथ ही प्रकृत्ति में परिवर्तन का होना शुरु हो जाता है। बैसाखी पर्व का महत्व इस वजह से भी बढ़ जाता है क्योंकि इसी दिन से विक्रमी संवत् की शुरूआत होती है और भारतीय संस्कृति के उपासक बैसाखी को ही नववर्ष का शुभारंभ मानकर इसी दिन से अपने नए साल का कार्यक्रम बनाते हैं और पंचांग भी विक्रमी संवत् के अनुसार ही तैयार किए जाते हैं। बैसाखी के ही दिन दिन-रात बराबर होते हैं, इसीलिए इस दिन को ‘संवत्सर’ भी कहा जाता है। सनातन धर्म में नए साल के रूप में भी मनाया जाता है। बहुत से स्थानों पर व्यापारी लोग आज के दिन नए वस्त्र धारण करके अपने बही-खातों का आरम्भ भी करते हैं। इसी दिन, 13 अप्रैल 1699 को दसवें गुरु गोविंद सिंहजी ने खालसा पंथ की स्थापना की थी। भारत के सिख समुदाय के लोग इस त्योहार को सामूहिक जन्मदिवस के रूप में मनाते हैं। इस पर्व को हिंदु स्नान, भोग लगाकर और पूजा करके मनाते हैं। ऐसा माना जाता है कि हजारों साल पहले देवी गंगा इसी दिन धरती पर उतरी थीं। उन्हीं के सम्मान में हिंदू धर्मावलंबी पारंपरिक पवित्र स्नान के लिए गंगा किनारे एकत्र होते हैं।
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गौर करने वाली बात यह है कि पंजाब अन्य राज्यों के मुकाबले सर्वाधिक अन्न उत्पादक क्षेत्र है। यहां के किसान अपने खेतों को फसलों से लहलहाते देखता है तो वह इस दिन खुशी से झूम उठता है और खुशी के इसी आलम में शुरू हो जाता है गिद्दा और भांगड़ा का मनोहारी दौर। बैसाखी पर्व के संबंध में कुछ अंधविश्वास भी प्रचलित हैं। माना जाता है कि यदि बैसाखी के दिन बारिश होती है या आसमान में बिजली चमकती है तो उस साल बहुत अच्छी फसल होती है। ‘इसे कृषि और उत्पादन का पर्व माना जा सकता है क्योंकि जब लोहड़ी जलाई जाती है तो उसकी पूजा गेहूं की नयी फसल की बालों से की जाती है। हम इस पर्व को अच्छी खेती और फसल पकने का प्रतीक मानते हैं। लोहड़ी आई यानी फसल पकने लगी और फिर खेतों की रखवाली शुरू हो जाती है। बैसाखी तक पकी फसल काटने का समय आ जाता है।’ शायद यही वजह है कि कृषि प्रधान राज्य पंजाब में इसका खास महत्व है। लोग शाम को एक जगह एकत्र होते हैं। पूजा कर लोहड़ी जलाई जाती है और इसके आसपास सात चक्कर लगाते समय आग में तिल डालते हुए, ईश्वर से धनधान्य भरपूर होने का आशीर्वाद मांगा जाता है। ऐसा माना जाता है कि जिसके घर पर भी खुशियों का मौका आया, चाहे विवाह के रूप में हो या संतान के जन्म के रूप में, लोहड़ी उसके घर जलाई जाएगी और लोग वहीं एकत्र होंगे.’ ढोलक की थाप पर लोकगीतों पर गिद्दा करती महिलाएं जहां लोहड़ी को अनोखा रंग दे देती हैं वहीं ढोल बजाते हुए भांगड़ा करते पुरुष इस पर्व में समृद्ध संस्कृति की झलक दिखाते हैं। ठंड के दिनों में आग के आसपास घूम घूम कर नृत्य करते समय हाथों में रखे तिल आग में डाले जाते हैं। अवलाश कहते हैं, ‘लोगों के घर जा कर लोहड़ी जलाने के लिए लकडि़यां मांगी जाती हैं और दुल्ला भट्टी के गीत गाए जाते हैं।
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बताते है बैसाखी का पर्व था। आनंदपुर की पावन धरती धन्य हो रही थी। लगभग 80 हजार विशाल जनसमुदाय एकत्रित था। गुरुजी ने उनमें जीवटता, स्वाभिमान, निडरता, त्याग, उत्सर्ग एवं परोपकार का भाव सुदृढ़ कराने के लिए दाएँ हाथ में शमशीर को फहराते हुए सिंह गर्जना के साथ आह्वान किया कि धर्म एवं राष्ट्र रक्षा के लिए 5 शीशों का बलिदान चाहिए। सभी स्तब्धता से गुरुदेवजी को देखने लगे, लेकिन सन्नाटे को चीरते हुए श्रद्धा भावना के साथ लाहौर निवासी 30 वर्षीय खत्री जाति के भाई दयारामजी आगे आए और विनीत भाव से बोले- मेरा शीश हाजिर है मेरे स्वामी। गुरुजी उन्हें तंबू में ले गए। तलवार के एक झटके की आवाज आई। कुछ समय पश्चात रक्तरंजित तलवार लिए मंच पर वापस आ गए। उन्होंने दूसरे सिर की माँग की। इस बार देहली के 33 वर्षीय जाट भाई धरमदासजी ने स्वयं को गुरु के चरणों में समर्पित किया। उन्हें भी तंबू में ले गए, जहाँ उसी प्रकार तलवार के झटके की आवाज आई। तीसरी बार द्वारकापुरी के 36 वर्षीय छीबा, भाई मोहकमचंद तथा चैथी बार जगन्नाथपुरी के कहार 38 वर्षीय भाई हिम्मतरायजी तथा पाँचवीं बार बिदर निवासी भाई साहबचंदजी ने गुरुजी के समक्ष नतमस्तक हो बड़ी श्रद्धा, भक्तिभाव से सहर्ष स्वयं को उनके समक्ष समर्पित कर दिया। गुरुजी पुनः मंच पर इन शूरवीर, त्याग, उत्सर्ग के प्रतीत 5 प्यारों के साथ पधारे। अमृत के दाता गुरु गोबिंदसिंघजी ने इन्हें संत-सिपाही का स्वरूप प्रदान करने के लिए सर्वलोह के पात्र में निर्मल जल डालकर सर्वलोह के खंडे से घोटते हुए पवित्र बाणी जपजी साहब से भक्ति, जाप साहब से शक्ति, सवहयों से बैराग, चैपई साहब से विनम्रता एवं आनंद साहब से आनंद भाव लेकर अमृत तैयार किया। माता जीतोजी ने उसमें बताशे डालकर मिठास डाल दी। इस प्रकार खड़ग की आन, वाणी की रूहानी शक्ति तथा बताशे की मिठास एवं गुरुजी की आत्मशक्ति से अमृत तैयार हुआ। गुरुजी ने पाँचों प्यारों को अपने हस्तांजुलियों से वाहै गुरुजी का खालसा वाहै गुरुजी की फताहि के घोष के साथ उनके शीश, नेत्र में अमृत के 5-5 छींटे डाले। कड़ा, कृपाण, केश, कंघा तथा कछहरा इन 5 कंकारों से सुसज्जित किया और घोषणा की कि खालसा अकाल पुरख की फौज। खालसा प्रगटिओं परमात्म की मौज अर्थात् खालसा की सृजना ईश्वर की आज्ञा से हुई है।
गुरु गोविंद सिंह ने खालसा पंथ की स्थापना के साथ ही दो नारे भी दिये, जिनमें एक था- वाहेगुरु जी का खालसा, वाहेगुरु जी की फतेह तथा दूसरा- बोले सो निहाल, सत् श्री अकाल! पहले नारे का विश्लेषण करें तो यही है कि खालसा वही जो खालिस है, पवित्र है तथा वाहेगुरु का है यानी ईश्वर का है तथा किसी भी कार्य में या युद्ध में उसकी फतेह (जीत) भी ईश्वर की ही इच्छा से है। यहां मनुष्य के अपने अहंकार को तिलांजलि देने का फलसफा है। इसके साथ ही सत्श्री अकाल यानी जो काल से परे है वही एकमात्र सत्य है बाकी सब मिथ्या है। गुरु गोविंद सिंह ने पांच वैसे सिख जो खालिस हों पवित्र हों या नी सचमुच खालसा हों तो उन्हें ईश्वर का प्रत्यक्ष रूप माना है और उनका निर्णय तथा आदेश सर्वोपरि कहा तो है ही, एक बार मुगलों के साथ युद्ध में एक कच्चे किले से न चाहते हुए भी सुरक्षित निकल जाने के खालसा के आदेश को उन्हें मानना पड़ा था। उन्होंने शस्त्र उठाने तथा युद्ध करने को भी तभी तर्कसंगत माना था, जब अत्याचारी, अन्यायी बातचीत या शांति की भाषा समझना ही न चाहता हो, तब शमशीर को हाथ में उठाना ही धर्म है। उन्होंने औरंगजेब को इन्हीं भावनाओं की अभिव्यक्ति करते हुए अपने फारसी में लिखे पत्र ‘जफरनामा’ में कुछ यूं बयां किया है-चूं कार अज हमा हीलते दर गुरश्त, हलाल अस्त बुरदन व शमशीर दस्त।
बैसाखी के दिन होने वाले प्रमुख आयोजन
इस दिन सिख लोग वैसाखी के दिन पंज प्यारों का रूप धारण कर स्मरण करते है। इस दिन पंजाब का परंपरागत नृत्य भांगड़ा और गिद्दा किया जाता है। शाम को आग के आसपास इकट्ठे होकर लोग नई फसल की खुशियाँ मनाते हैं पूरे देश में श्रद्धालु गुरुद्वारों में अरदास के लिए इकट्ठे होते हैं। मुख्य समारोह आनंदपुर साहिब में होता है, जहां पंथ की नींव रखी गई थी सुबह 4 बजे गुरु ग्रंथ साहिब को समारोहपूर्वक कक्ष से बाहर लाया जाता है दूध और जल से प्रतीकात्मक स्नान करवाने के बाद गुरु ग्रंथ साहिब को तख्त पर बैठाया जाता है। इसके बाद पंच प्यारे पंचबानी गाते हैं दिन में अरदास के बाद गुरु को कड़ा प्रसाद का भोग लगाया जाता है प्रसाद लेने के बाद सब लोग गुरु के लंगर में शामिल होते हैं श्रद्धालु इस दिन कारसेवा करते हैं दिनभर गुरु गोविंदसिंह और पंच प्यारों के सम्मान में कीर्तन गाते हैं ढोल-नगाड़ों की थाप पर युवक-युवतियां प्रकृति के इस उत्सव का स्वागत करते हुए गीत गाते हैं। एक-दूसरे को बधाइयां देकर अपनी खुशी का इजहार करते हैं और झूम-झूमकर नाच उठते हैं बैसाखी पंजाब के युवा वर्ग को उस भाईचारे की याद दिलाती है जहां माता अपने दस गुरुओं के ऋण को उतारने के लिए अपने पुत्र को गुरु के चरणों में समर्पित करके सिख बनाती थी गुरु गोविंद सिंह ने इस मौके शीशों की मांग की, जिसे दया सिंह, धर्म सिंह, मोहकम सिंह, साहिब सिंह व हिम्मत सिंह ने अपने शीशों को भेंट कर पूरा किया। इन पांचों को गुरु के ‘पंच-प्यारे’ कहा जाता है, जिन्हें गुरु ने अमृत पान कराया इस दिन समस्त उत्तर भारत की पवित्र नदियों में स्नान करने का माहात्म्य माना जाता है। इस दिन प्रातःकाल नदी में स्नान करना हमारा धर्म हैं
बैसाखी का स्वरूप निर्मल एवं सत्य है। इस स्वरूप में खालसा की सृजना कर उनमें सदियों से चली आ रही जात, पात, वर्ग, कुल तथा क्षेत्रीयता की दीवारें समाप्त कर दीं खुशहाली, हरियाली और अपने देश की समृद्धि की कामना करते हुए पंजाबी समुदाय के लोग पूजा-अर्चना, दान-पुण्य एवं दीप जलाकर बैसाखी पर ढोलों की ताल पर गिद्दा ते भंगड़ा, नाच-गाकर यह पर्व मनाते हैं बैसाखी के दिन अमृतसर के जलियांवाला बाग में अंग्रेज जनरल डायर द्वारा क्रूरतापूर्ण सैकड़ों लोगों को गोलियों का निशाना बनाकर मार दिया गया, तभी से उन अमर शहीदों को बैसाखी के दिन श्रद्धांजलि दी जाती है केरल में इस दिन धान की बोवनी शुरू होती है। इस दिन हल और बैलों को रंगोली से सजाया जाता है, पूजा-अर्चना की जाती है और बच्चों को उपहार दिए जाते हैं तमिल के लोग नया साल पुथांदू मनाते हैं। असम में लोग नया वर्ष बिहू मनाते हैं कश्मीर में नवरेह नाम से इसे नववर्ष के महोत्सव के रूप में मनाया जाता है आंध्रप्रदेश में इसे उगादि तिथि अर्थात युग के आरंभ के रूप में मनाया जाता है कहा यह भी जाता है कि इस दिन ब्रह्मा ने सृष्टि का निर्माण किया और समय ने आज से चलना प्रारंभ किया था। यह श्रीखंड और पूड़ी का भी त्योहार है। महिला एवं बच्चों को उपहार दिए जाते हैं। वहीं गरीबों को भोजन एवं दान दिया जाता है और घरों में कई प्रकार के व्यंजन बनाए जाते हैं
गेहूं को पंजाबी किसान कनक यानि सोना मानते हैं। यह फसल किसान के लिए सोना ही होती है, उसकी मेहनत का रंग दिखायी देता है ढोल हमेशा से ही पंजाबियों का साथी रहा है। ढोल से धीमे ताल द्वारा मनमोहक संगीत निकलता है। पिछली सदियों में आक्रमणकारियों से होशियार करने के लिए ढोल बजाया जाता था। इसकी आवाज दूर तक जाती थी। ढोल की आवाज से लोग नींद से जाग जाते थे। संकट समय ढोल की आवाज लोगों को सूचना दे देती थी और घरों से निकलकर वे दुश्मन पर टूट पड़ते थे गुरु गोविंद सिंह जी ने दुश्मनों से लोगों को होशियार कराने के लिए नगाड़ा बनवाया था। नगाड़ा गधे या ऊंट की खाल से बनाया जाता था ककार (केस, कंघा, कड़ा, कच्छ एवं कृपाण) धारण करने का विधान बनाया
(सुरेश गांधी)